SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ चरित्रों के विश्लेषण की दृष्टि से भी कथाएं सफल हैं। महत्वपूर्ण पात्रों के चरित्र भी महनीय शैली में व्यक्त किये गये हैं । पात्रों को कर्त्तव्य-अकर्तव्य को तली-भांति जानकारी । गुरु या श्राचार्य का सम्पर्क प्राप्त करते ही पात्र कुछ से कुछ बन जाते हैं । पात्रों में जातिगत, वर्गगत और साम्प्रदायिक विशेषताएं भी वर्तमान हैं । लेखक ने परिस्थितियों के साथ तथ्यों की योजना बड़ी कुशलता से की है। अतः उद्देश्य को सिद्धि के लिए चरित्रों का उत्कर्ष स्थापित किया है । भाषा और शैली की दृष्टि से भी ये कथाएं सफल हैं । इन गुणों के रहते हुए भी मौलिकता बहुत कम हैं । कथाओंों में वह बांकापन नहीं है, जो आज के कथा साहित्य का प्राण है । नायाधम्मकहाओ से ये कथाएं बहुत कम प्रा बढ़ सकी हैं । साम्प्रदायिक सिद्धान्तों का पूर्णतया समावेश रहने से सम्पूर्ण तत्त्वों का निर्वाह नहीं हो सका है । गुणचन्द्र का महावीरचरियं इस चरित ग्रंथ की रचना गुणचन्द्र ने प्रसन्नचन्द्र सूरि के उपदेश से छत्रावली ( छत्राल) निवासी सेठ शिष्ट और वीर की प्रार्थना से वि० सं० १९३६ ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सोमवार के दिन की है। शिष्ट और वीर का परिचय देते हुए बताया गया है कि इनके पूर्वज गोवर्द्धनकर्पट वाणिज्यपुर के रहने वाले थे । गोवर्द्धन के चार पुत्र हुए। इनमें से जज्जगण छत्रावली में आकर रहने लगा। इसकी पत्नी का नाम सुन्दरी था । इस दम्पति के शिष्ट और वीर ये दो पुत्र उत्पन्न हुए । इस कृति में आठ प्रस्ताव हैं। इसमें भगवान महावीर की कथा अाधिकारिक कथा हैं और हरिवर्मा, सत्यश्रेष्ठि, सुरेन्द्रदत्त, वासवदत्ता, जिनपालित, रविपाल, कोरंटक, कामदेव, सागरदेव, सागरदत्त, जिनदास और साधुरक्षित आदि की कथाएं प्रासंगिक कथा के रूप में आयी हैं, इन कथाओं को समवशरण में व्रतों की महत्ता बतलाने के लिए कहा गया है । कपिलदीक्षा और मरीचि के कृत्यों का वर्णन बड़ी ही प्रोजस्वी भाषा में किया गया है । कवि ने वर्धमान की अलौकिक क्रीड़ाओों और लेखशाला में उनके बुद्धिकौशल का परिचय उपस्थित कर अलौकिक वातावरण उपस्थित किया है । दीक्षा के पश्चात् वर्धमान ने बारह वर्ष के तपश्चरणकाल में बारह वर्षावास किये और इन वर्षावासों में अनेक प्रकार के व्यक्तियों से उनका साक्षात्कार हुआ । नालन्दा में तन्तुवाय अर्जुन की शाला में वर्षावास करते समय मंखलिपुत्र गोशाल का भगवान् महावीर से साक्षात्कार हुआ और इसने भगवान् का शिष्यत्व ग्रहण किया। कालान्तर में गोशाल भगवान् से पृथक हो गया और स्वयं अपने को तीर्थंकर कहने लगा । केवलज्ञान के पश्चात् भगवान ने जगत के दुःख- सन्ताप, असन्तोष, हाहाकार एवं राग-द्वेष के परिमार्जित करने का उपदेश दिया। तीस वर्ष तक उपवेश देने के अनन्तर भगवान् ने पावापुर में निर्वाणलाभ किया । प्रासंगिक कथाओं में श्रहिंसा व्रत पर कही गयी नन्द की कथा बहुत ही रोचक है । इस कथा में श्राया है कि गजपुर नगर में वत्त नामका ब्राह्मण अपनी श्री नामकी पत्नी १ - - नन्दसिहिरुद्द संखे वोक्कंत विक्कमात्र कालंमि । जेट्ठस्स सुद्धतइया तिहिमि सोमे समतमिमं ॥ Jain Education International -म० ख० पृ० ३४१ गा० ८३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy