SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७५ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन . जन्म दिया ।३८ सोमदेव ने 'सामोद्भवाय' कहकर इसी पौराणिक अनुश्रुति की ओर ध्यान दिलाया है। ... पालकाप्यचरित्र के ही प्रसंग में मुनियों के शाप तथा इन्द्र की आज्ञा का भी उल्लेख है-'प्राचीन काल में हाथी स्वेच्छा से मनुष्य तथा देवलोक में विचरते थे। उन्हीं दिनों हिमालय की तराई में एक वटवृक्ष के नीचे दीर्घतपा महर्षि तप करते थे। एक बार गजयूथ वटवृक्ष पर उतरा। सारे हाथी एक ही शाखा पर बैठ गये। शाखा टूट पड़ी और हाथियों सहित नीचे आ गिरी। महर्षि ने क्रोधित होकर शाप दिया- 'यथेच्छ विहार से च्युत होकर मनुष्यों की सवारी होमो'।२९ उपर्युक्त कन्या के शाप के विषय में पालकाप्य में कहा गया है कि इन्द्र ने, मतंग महर्षि को तप से डिगाने के लिए गुरगवती नाम की कन्या भेजी थी, जिसे महर्षि ने हस्तिनी होने का शाप दे दिया।४० इसके अतिरिक्त पालकाप्य के गजशास्त्र में दीर्घतप, अग्नि, वरुण, भृगु तथा ब्रह्मा के शाप का विस्तार के साथ विवेचन किया है।४। सोमदेव ने 'मुनींद्राणां शापः', 'सुरपतिनिदेशश्च' पद में इन्हीं बातों की सूचनाएँ दी हैं। गज के भेद-गज के निम्नलिखित भेदों के विषय में सोमदेव ने विशेष जानकारी दी है‘भद्र-भद्र जाति के हाथी में सोमदेव ने निम्नलिखित लक्षण बताए हैं (१) चौड़ा सोना, (२) मस्तक में अनेक रत्न, (३) स्थूल या बृहत्काय, (४) निश्चल और सुडौल शरीर, (५) ललित गति, (६) अन्वर्थवेदिता, (७) लम्बी ३८. तं मां विधि महाराज प्रसूतं सामगायनात् ।-इत्यादि, ___ गजशास्त्र, श्लो०६६-६५ ३९. बलदर्पोच्छ्याः नागाः मम शापपरिग्रहात, विमुक्ता कामचारेण भविष्यथ न संशयः । नराणां वाहनत्वं च तस्मात् प्राप्स्यथ वारणाः।-इत्यादि, वही, श्लो० ४६-१५ ४०. धर्मविघ्नकरी मत्वा शक्रेण प्रहितां स्वयम् । ततः शशाप संक्रुद्धस्तापसस्तु स कन्यकाम् ॥ अरण्ये विचरस्येका यस्मान्मानुषवर्षिते । तस्मादरण्यनिचये करेणुत्वं भविष्यति ॥-वही, श्लोक ७३, ७४ ४१. गजशास्त्र, तृतीय प्रकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy