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________________ असद्भूतव्यवहारनय / ७१ "अज्ञानी जीवोऽशुद्धनिश्चयनयेनाशुद्धोपादानरूपेण मिथ्यात्वरागादिभावानामेव कर्ता, न च द्रव्यकर्मणः।"१ - अर्थात् अज्ञानीजीव अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध उपादानरूप में मिथ्यात्वरागादिभावों का ही कर्ता है, द्रव्यकर्म का नहीं। अशुद्धनिश्चयनय अशुद्ध उपाधिमूलक असद्भूतव्यवहारनय का ही नामान्तर है।' असद्भूत का अर्थ है जो जीव में स्वतःसिद्ध नहीं है, उपाधिमूलक से अभिप्राय है जो उपाधि के कारण उत्पन्न हुआ है और व्यवहार का अर्थ है उसे जीव से सम्बन्ध देखना या दर्शाना। । यदि सोपाधिकपदार्थावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि से न देखकर मूलपदार्थावलम्बिनी निश्चयद्रष्टि से देखा जाय, तो जीव में मोहरागादि औदयिक भावों का अस्तित्व दिखाई नहीं देगा, क्योंकि कर्मोपाधिरहित शुद्ध आत्मद्रव्य मोहरागादिस्वभावात्मक नहीं है, शुद्धचैतन्यस्वभावात्मक है। मोहनीय कर्म के उपशम से जीव में औपशमिक सम्यग्दर्शन एवं औपशमिक सम्यक्चारित्र की अभिव्यक्ति होती है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव के ज्ञानगुण की मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, कुमति, कुश्रुत एवं कुअवधि ( विभंग ) पर्यायें तथा दर्शनावरण के क्षयोपशम से दर्शनगुण की चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन एवं अवधिदर्शन ये तीन पर्यायें प्रकट होती हैं। मोहनीय के क्षयोपशम से सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र तथा संयमासंयम का एवं अन्तराय के क्षयोपशम से दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य इन पाँच लब्धियों का आविर्भाव होता है। मोहनीय कर्म का क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्व, एवं क्षायिक सम्यक्चारित्र तथा ज्ञानावरणादि का क्षय होने पर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य एवं दानादि क्षायिक लब्धियाँ उदित होती हैं। इसलिए जीव की ये पर्यायें भी औपाधिक हैं, जिससे इनके जीवसम्बद्ध होने का ज्ञान सोपाधिकपदार्थावलम्बिनी असद्भूतव्यवहारदृष्टि से निरीक्षण करने पर होता है। मूलपदार्थावलम्बिनी निश्चयदृष्टि जीव के शुद्धचैतन्यरूप पारिणामिक भाव पर ही जाती है, अत: उसके द्वारा देखने पर जीव में इन औपाधिक भावों का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। १. समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, १०२ । २. “स चाशुद्धनिश्चयो यद्यपि द्रव्यकर्मकर्तृत्वरूपासद्भूतव्यवहारापेक्षया निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव।" वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, १०२ ३. “बहिर्दृष्ट्या नवतत्त्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबन्धपर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि। अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि।" वही/आत्मख्याति/गाथा, १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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