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________________ ७२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन यतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र जीव की औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक पर्यायें हैं, इन्हीं का सम्मिलित रूप शुद्धोपयोग कहलाता है जो मोक्ष का वास्तविक मार्ग है, अत: शुद्धोपयोगरूप मोक्षमार्ग भी जीव की औपाधिक पर्याय है।' इसलिए सोपाधिकपदार्थावलम्बिनी असद्भूत व्यवहारदृष्टि से देखने पर ही जीव में इस पर्याय के अस्तित्व का बोध होता है। निरुपाधिक मूलपदार्थावलम्बिनी दृष्टि से देखने पर इसका अस्तित्व दिखाई नहीं देता। आचार्य कुन्दकुन्द ने इस ( मूलपदार्थावलिम्बनी ) दृष्टि का अवलम्बनकर उपर्युक्त समस्त भावों का जीव में अभाव बतलाया है, क्योंकि जीव के साथ उनका स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है, अपितु औपाधिक सम्बन्ध है। समयसार की छह गाथाओं में उन्होंने वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यन्त अनेक भावों के जीव में होने का निषेध किया है जिनमें उपर्युक्त सभी औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं चतुर्दश गुणस्थान तक के क्षायिक भाव आ जाते हैं। वे कहते हैं - “( निश्चनयनय से विचार करने पर निश्चित होता है कि ) जीव में न वर्ण है, न गन्ध है, न रस है, न स्पर्श है, न रूप है, न शरीर है, न संस्थान है, न संहनन है। जीव में न राग है, न द्वेष है, न मोह है, न प्रत्यय हैं, न कर्म हैं, न नोकर्म। जीव में न वर्ग हैं, न वर्गणा हैं, न स्पर्द्धक हैं, न अध्यात्मस्थान हैं, न अनुभागस्थान। जीव में न योगस्थान हैं, न बन्धस्थान, न उदयस्थान, न मार्गणास्थान। जीव में न स्थितिबन्धस्थान हैं, न संक्लेशस्थान, न विशुद्धिस्थान, न संयमलब्धिस्थान। जीव में न जीवस्थान हैं, न गुणस्थान। ये सब पुद्गलकर्मनिमित्तक होने से पुद्गल के परिणाम हैं। चूँकि ये कर्मोपाधि के निमित्त से जीव में होते हैं, इसलिए निरुपाधिक ( मूल ) पदार्थावलम्बिनी दृष्टि से देखने पर जीव में इनका अस्तित्व दिखाई नहीं देता, सोपाधिकपदार्थावलम्बिनी दृष्टि से देखने पर ही दिखाई देता है। इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चयनय से निषेधकर व्यवहारनय ( उपाधिकमूलक असद्भूतव्यवहारनय ) से इन्हें जीव का कहा है - ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया । गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ।।' १. “तत्र च यदा कालादिलब्धिवशेन भव्यत्वशक्तेर्व्यक्तिर्भवति तदायं जीवः सहजशुद्ध पारिणामिकभावलक्षणनिजपरमात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणपर्यायेण . परिणमति। तच्च परिणमनम् आगमभाषयौपशमिक-क्षायोपशमिक-क्षायिकं भावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुन: शुद्धात्मभिमुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञां लभते।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, ३२० २. वही/गाथा, ५०-५५ ३. वही/गाथा, ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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