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________________ ६० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन आत्माश्रित ( आत्मविषयक ) भाव हैं। इनका मेल नियम से मोक्ष का हेतु है। इसलिए आत्माश्रितभाव का अवलम्बन कर मोक्षमार्ग का निर्णय करनेवाली दृष्टि निश्चयदृष्टि (निश्चयनय ) होती है। उसके द्वारा अवलोकन करने पर इन आत्माश्रित भावों का समूह ही वास्तविक मोक्ष-मार्ग के रूप में प्रकट होता है। इसीलिए आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है - 'आत्माश्रितो निश्चयनयः',' तथा 'आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात् । अर्थात् आत्माश्रित निश्चयदृष्टि से ज्ञान में आने वाले मोक्षमार्ग पर जो चलते हैं, वे ही मुक्त होते हैं। इसके विपरीत जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान, जीवादि तत्त्वों का ज्ञान एवं जीवरक्षादिरूप चारित्र पराश्रित ( परद्रव्यविषयक ) भाव हैं। इनका संयुक्तरूप नियम से मोक्ष का हेतु नहीं है। जब आत्माश्रित मोक्षमार्ग के अवलम्बन की सामर्थ्य अर्जित करने के लिए उसका आश्रय किया जाता है तब परम्परया मोक्ष का हेतु होता है। केवल स्वर्गादि प्राप्त करने के उद्देश्य से अवलम्बन करने पर मोक्ष में सहायक नहीं होता। अत: आत्माश्रित निश्चयमोक्षमार्ग का साधक बनकर परम्परया मोक्ष का हेतु होने से जिनेन्द्रदेव ने पराश्रित सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र के समूह को उपचार से मोक्षमार्ग संज्ञा दी है जिससे उसकी परम्परया मोक्षहेतुता एवं इस कारण उपादेयता की प्रतीति हो जाय। निष्कर्ष यह कि आत्माश्रितभावावलम्बिनी निश्चयदृष्टि आत्माश्रित सम्यग्दर्शनादि पर जाती है और युक्तिपूर्वक उनकी नियमेन मोक्षहेतुता के दर्शन करती है और इस तरह वह वास्तविक मोक्षमार्ग का बोध कराती है, साथ ही जिसे उपचार से मोक्षमार्ग संज्ञा दी गयी है उसमें मोक्षमार्ग का नियतस्वलक्षण न पाने के कारण वह उसे वास्तविक मोक्षमार्ग के रूप में ग्रहण नहीं करती। उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयनय ज्ञाता की वह दृष्टि है जो मूल-पदार्थ, मूल-स्वभाव, मौलिक भेद, मौलिक अभेद, नियतस्वलक्षण एवं आत्माश्रित भाव के आधार पर वस्तुस्वरूप का निर्णय करती है और ज्ञाता को इन सबका तथा इन पर आश्रित वस्तु के विभिन्न धर्मों का बोध कराती है। वह दृष्टि व्यवहारनय द्वारा बतलाये गये रूप को वस्तु का मूलरूप नहीं मानती, उसके द्वारा निरूपित स्वभाव को वस्तु का मूलस्वभाव नहीं मानती, उसके द्वारा दिखलाये १. समयसार/आत्मख्याति/गाथा, २७२ २. वही ३. (क) “पराश्रितो व्यवहारनयः।" वही (ख) “एवं पराश्रितत्वेन व्यवहारमोक्षमार्ग प्रोक्त इति।" वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, २७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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