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________________ निश्चयनय । ५९ करनेवाली कर्मप्रकृति को उपचार से सम्यक्त्व नाम दिया गया है।' ___मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल - ये पाँच ज्ञान प्रमाण हैं। इनमें प्रथम दो परोक्ष प्रमाण हैं। यहाँ मतिज्ञान 'प्रथम' के नियत स्वलक्षण की अपेक्षा प्रथम है। क्रम में द्वितीय होने पर भी प्रथम का समीपवर्ती होने से श्रुतज्ञान की उपचारत: प्रथम संज्ञा है। द्रव्यश्रुत के अध्ययन से उत्पन्न भावश्रुत की नियतस्वलक्षण के अभिप्राय से 'ज्ञान' संज्ञा है। ज्ञान का निमित्त होने से द्रव्यश्रुत के लिए उपचार से 'ज्ञान' संज्ञा का प्रयोग किया गया है। समस्त बाह्य पदार्थ नियतस्वलक्षण की अपेक्षा ‘पदार्थ' कहलाते हैं। उनके निमित्त से केवली भगवान के ज्ञान में उन पदार्थों के ज्ञेयाकार झलकते हैं। उन्हें उपचार से पदार्थ कहा जाता है और इस उपचार के आधार पर भगवान् व्यवहारनय से सर्वगत कहलाते हैं।' इन समस्त प्रकरणों में नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि एवं उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि के अभिप्राय को जाननेवाला मनुष्य इन दोनों दृष्टियों से विचार करके समझ लेता है कि नियतस्वलक्षण की अपेक्षा प्रयुक्त की गयी संज्ञा ( नाम ) वास्तविक है और नियतस्वलक्षण के बिना उपचार से प्रयुक्त की गयी संज्ञा अवास्तविक। इस तरह वह अवास्तविक को वास्तविक समझने की भ्रान्ति से बच जाता है। आत्माश्रितभावावलम्बिनी दृष्टि से मोक्षामार्ग का निर्णय स्वात्मा का श्रद्धान, स्वात्मा का ज्ञान और स्वात्मलीनतारूप चारित्र १. “तत्थ अत्तागम-पदत्थसद्धाए जस्सोदएण सिथिलत्तं होदि, तं सम्मत्तं। कधं तस्स सम्मत्तववएसो ? सम्मत्तसहचरिदोदयत्तादो उवयारेण सम्मत्तमिदि उच्चदे।" धवला/पुस्तक ६/चूलिका १/सूत्र ११/पृ० ३९ २. “मतिश्रुतयोः प्रथमत्वं कथम् ? सत्यम्। प्रथमं मतिज्ञानं तन्मुख्यम् तस्य समीपवर्तित्वादुपचारेण श्रुतमपि प्रथममुच्यते।" तत्त्वार्थवृत्ति, १/११ । ३. "श्रुतं हि तावत्सूत्रम्। तच्च भगवदर्हत्सर्वज्ञोपज्ञं स्यात्कारकेतनं पौद्गलिकं शब्दब्रह्म। तज्ज्ञप्तिर्हि ज्ञानम्। श्रुतं तु तत्कारणत्वात् ज्ञानत्वेनोपचर्यत एव।" प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका, १/३४ ४. “येन च कारणेन नीलपीतादिबहि:पदार्था आदर्श बिम्बवत् परिच्छित्याकरेण ज्ञाने प्रतिफलन्ति तत: कारणादुपचारेणार्थकार्यभूता अर्थाकारा अप्या भण्यन्ते।" वही/तात्पर्यवृत्ति १/२६ ५. “व्यवहारनयेन भगवान् सर्वगत इति व्यपदिश्यते।" वही/तत्त्वदीपिका १/२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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