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________________ २१० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन देते हुए आचार्य अमृचन्द्र कहते हैं – “जो साधक आत्मस्वरूप में स्थिरता प्राप्त करने में सदा तत्पर रहते हैं, किन्तु जब प्रमाद का उदय होता है तब शास्त्रविहित क्रियाकाण्ड ( शुभप्रवृत्ति ) द्वारा उसका निरोध करते हैं और पुन: आत्मस्वरूप में लीन हो जाते हैं, वे ही शाश्वत मोक्षपद के भोक्ता होते हैं।" आचार्य अमृतचन्द्र जी के इस निरूपण से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि आगम में निश्चय और व्यवहार के एकान्त अवलम्बन का निषेध करते हुए उनके परस्परसापेक्ष या अनेकान्तरूप से ( आवश्यकतानुसार दोनों के ) अवलम्बन द्वारा ही मोक्ष की सिद्धि बतलाई गई है। आचार्य जयसेन ने भी ऐसा ही निरूपण किया है। सर्वथानुगम्यः स्याद्वादः ___ आगम में उत्सर्ग और अपवाद के एकान्त आश्रय का निषेध करके भी साधना की अनेकान्तात्मकता प्रतिपादित की गई है। उनके एकान्त आश्रय के निषेध का निरूपण आचार्य अमृतचन्द्र जी ने प्रवचनसार की टीका' में किया है। उसका सार इस प्रकार है - बाल, वृद्ध, तप:श्रान्त तथा रुग्ण मुनि के लिए भी शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम की रक्षा हेतु यथाशक्ति कठोर आचरण ही पालनीय है, यह उत्सर्ग ( सामान्य नियम ) है। संयम के साधनभूत शरीर की रक्षा के लिए यथाशक्ति मृदु आचरण ही आचरणीय है, यह अपवाद ( विशेष नियम ) है। परस्पर निरपेक्षरूप में ये दोनों ही अहितकर हैं। शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम की रक्षा के लिए यथाशक्ति कठोर आचरण करते हुए संयम के साधनभूत शरीर की रक्षा के लिए यथाशक्ति मृदु आचरण भी आचरणीय है, यह अपवादसहित उत्सर्ग है। तथा संयम के साधनभूत शरीर की रक्षा के लिए यथाशक्ति मृदु आचरण करते हुए शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम की रक्षा के लिए यथाशक्ति कठोर आचरण भी आचरणीय है, यह उत्सर्गसापेक्ष अपवाद है। १. “ये तु निश्चयव्यवहारयोरन्यतरानवलम्बनेनात्यन्तमध्यस्थीभूताः शुद्धचैतन्यरूपात्म तत्त्वविश्रान्तिविरचनोन्मुखाः प्रमादोदयानुवृत्तिनिर्वर्तिकां क्रियां क्रियाकाण्ड परिणति-माहात्म्यानिवारयन्तोऽत्यन्तमुदासीना यथाशक्त्यात्मानमात्मनात्मनि सञ्चेतयमाना नित्योपयुक्ता निवसन्ति ते खलु शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतस्य भोक्तारो भवन्ति।" पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति/गाथा १७२ २. वही/तात्पर्यवृत्ति ३. प्रवचनसार, ३/३०-३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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