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________________ मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता / २०९ "तदनन्तर वे निश्चयनय का आश्रय लेकर भित्रसाध्य-साधनभाव का अवलम्बन छोड़ देते हैं और स्वात्मा के दर्शन, ज्ञान और अनुभव में समाहित होकर क्रमश: परम समरसता का आस्वादन करते हुए परम वीतरागभाव को प्राप्त हो साक्षात् मोक्ष का अनुभव करते हैं।" व्यवहारैकान्त से संसार-भ्रमण – “जो निश्चयमोक्षमार्ग से निरपेक्ष होकर मात्र व्यवहारमोक्षमार्ग का अवलम्बन करते हैं, वे आत्मानुभूति के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते, पुण्यों के फलस्वरूप मात्र स्वर्गादि के क्लेश भोगते हुए संसार में ही भटकते रहते हैं।" निश्चयैकान्त से केवल पापबन्ध - “जो केवल निश्चयनय का आश्रय लेते हैं, वे समस्त शुभप्रवृत्तिरूप कर्मकाण्ड को आडम्बर मानकर उससे विरक्त हो जाते हैं और नेत्रों को अर्धनिमीलित कर सुख से बैठ जाते हैं तथा ऐसा समझते हैं कि हम आत्मध्यान कर रहे हैं। वे भिन्नसाध्य-साधनभाव को हेय समझकर छोड़ देते हैं तथा अभिनसाध्य-साधनभाव ( स्वात्मा का श्रद्धान-ज्ञान एवं अनुभवरूप साधना ) को उपलब्ध नहीं कर पाते, अत: बीच में ही प्रमादरूपी ( विषयकषायरूपी ) मदिरा के मद से उनका चित्त निष्क्रिय हो जाता है, जिससे उनकी दशा उन्मत्त, मूछित अथवा विक्षिप्त व्यक्तियों के समान हो जाती है। वे मुनिपद की ओर ले जाने वाली शुभप्रवृत्ति का पुण्यबन्ध के भय से अवलम्बन नहीं करते और वीतरागभावरूप शुद्धात्मस्वरूप में स्थिरता प्राप्त हुई नहीं होती है, अत: प्रकट-अप्रकट प्रमाद के वशीभूत हो अशुभोपयोग के द्वारा केवल पापबन्ध ही करते हैं।' मध्यस्थ होने से ही मोक्ष - निश्चय और व्यवहार दोनों में से किसी एक का ही अवलम्बन न कर दोनों में अत्यन्त मध्यस्थ होने ( आवश्यकतानुसार दोनों का अवलम्बन करने ) से ही मोक्ष की सिद्धि होती है। मध्यस्थभाव का उदाहरण मलिनवासस इव मनाङ्मनाग्विशुद्धिमधिगम्य।" पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति/गाथा १७२ १. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति/गाथा १७२ २. “अथ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते ..." सुरलोक-क्लेशादिपरम्परया सुचिरं संसार सागरे भ्रमन्तीति।" वही ३. “येऽत्र केवलनिश्चयावलम्बिनः सकलक्रियाकर्मकाण्डाडम्बरविरक्तबुद्धयोऽर्धमीलितविलोचनपुटाः किमपि स्वबुद्ध्यावलोक्य यथासुखमासते, ते खल्ववधीरितभिन्नसाध्यसाधनभावा अभिन्नसाध्यसाधनभावमलभमाना अन्तराल एव प्रमादकादम्बरीमदभरालसचेतसो मत्ता इव, मूछिता इव ...केवलं पापमेव बध्नन्ति।" पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति/गाथा १७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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