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________________ षष्ठ अध्याय व्यवहारनय के भेद ( क ) असद्धृतव्यवहारनय के भेद पूर्व में असद्भूतव्यवहारनय के तीन भेदों का वर्णन किया गया है : उपाधिमूलक, बाह्यसम्बन्धमूलक और उपचारमूलक। इनमें उपाधिमूलक के भी दो भेद हो जाते हैं : द्रव्यपर्यायावलम्बी और भावपर्यायावलम्बी, क्योंकि कर्मों के उदयादि के निमित्त से जीव की द्विविध पर्यायें होती हैं, जिन्हें द्रव्यपर्याय और भावपर्याय कहते हैं। मनुष्य, देव, तिर्यञ्च और नारक, पर्यायें पुद्गलपरिणामभूत मनुष्यादि शरीरों के संश्लेष से उत्पन्न होती हैं, इसलिये द्रव्यपर्यायें हैं।' इनमें जीव के प्रदेश शरीरप्रमाण हो जाते हैं, किन्तु वह शरीर के रूप में परिणमित नहीं होता, इसलिये मनुष्यादि शरीर पौद्गलिक होने से जीव से अन्य हैं, जीव नहीं हैं।' तथा कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय के निमित्त से जीव मोहरागादिरूप, शुद्धोपयोगरूप, केवलज्ञानादिरूप एवं सिद्धत्वरूप परिणमित होता है। ये जीव के ही परिणाम अर्थात् चैतन्यपरिणाम होने से जीवरूप ही हैं, जीव से अन्य नहीं। इसलिए ये जीव की भावपर्यायें हैं। इस प्रकार भावपर्यायें जीवरूप हैं और द्रव्यपर्यायें, पुद्गलरूप। इस भेद को दर्शाने के लिए उपाधिमूलक असद्भूतव्यवहारनय के दो भेद करना आवश्यक है। जो भेद मनष्यादि द्रव्यपर्यायों का अवलम्बन कर जीव का मनुष्यादिरूप से निर्णय करता है, उसे द्रव्यपर्यायावलम्बी उपाधिमूलक असद्भूतव्यवहारनय संज्ञा दी जा सकती है तथा जो मोहरागादि या शुद्धोपयोगादि भावपर्यायों की दिशा से अवलोकन कर जीव का मोहरागादिमयरूप में अथवा शुद्धापयोगादिमयरूप में निश्चय करता है उसे भावपर्यायावलम्बी उपाधिमूलक असद्भूतव्यवहारनय नाम से अभिहित किया जा सकता है। १. (क) “तत्रानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्यायः। "" असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि।" प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका २/१ (ख) “जीवस्य भवान्तरगतस्य शरीरनोकर्मपुद्गलेन सह मनुष्यदेवादिपर्यायोत्पत्ति: चेतनजीवस्याचेतनपुद्गलद्रव्येण सह मेलापकाद् असमानजातीयः द्रव्यपर्यायो __ भण्यते।" पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १६ २. “निश्चयनयेन तेषु स्पर्शनादीन्द्रियाणि, पृथिव्यादयश्च कायाः जीवलक्षणभूतचैतन्य स्वभावाभावान जीवा भवन्ति।" वही/तत्त्वदीपिका/गाथा १२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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