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________________ १२६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन ज्ञान के साथ तादात्म्य उपपन्न नहीं होता। अत: अन्यथा अनुपपन्न होने से श्रुतज्ञान आत्मा ही है यह निश्चित होता है। यह निश्चय होने पर उक्त व्यवहारनयात्मक वाक्य से यही अर्थ निकलता है कि “जो आत्मा को जानता है वह श्रुतकेवली है' और यह अर्थ, परमार्थ ही है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानी को भिन्न पदार्थों की तरह वर्णित करनेवाले व्यवहारनय से परमार्थमात्र का ही प्रतिपादन होता हैं, अन्य अर्थ का नहीं।" इसके अतिरिक्त वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। उदाहरणार्थ, आत्मा में दर्शनज्ञानादि गुणरूप अनेक धर्म हैं। इन गुणों के मतिज्ञानादि एवं आत्मद्रव्य के मनुष्यत्वादि पर्यायरूप अनेक धर्म हैं तथा कर्त्ताकर्मत्वादि कारकरूप एवं अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि स्वभावरूप अनेकधर्म हैं। शिष्यों को इन अनन्तधर्मों का बोध इनका नाम लेकर बतलाने से ही होता है। और नाम लेने का अर्थ है संज्ञादिभेद के द्वारा आत्मा से इनकी भिन्नता दर्शाना जो सद्भूतव्यवहारनय का कार्य है। इस तरह वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता का बोध कराना भी सद्भूतव्यवहारनय द्वारा ही सम्भव है। धर्मों के बोध से ही धर्मी का बोध होता है जिससे धर्मी के अस्तित्व की प्रतीति होती है तथा एक वस्तु से दूसरी वस्तु की भिन्नता का ज्ञान होता है एवं वस्तु समस्त संकरदोषों से रहित अनुभव में आती है। इन समस्त परमार्थों का प्रतिपादन सद्भूतव्यवहारनय से ही हो सकता है। निश्चयनय तो धर्मरूप भेदों से दृष्टि हटाकर धर्मी पर ही दृष्टि डालता है जिससे न तो धर्म का बोध होता है, न धर्म के द्वारा धर्मी के स्वरूप का, न अनन्तधर्मात्मकता का। अत: सिद्ध है कि सद्भतव्यवहारनय के बिना परमार्थ का प्रतिपादन असम्भव है। “यः श्रुतेन केवलं शुद्धात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत् परमार्थो, यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः। तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा ? न तावदनात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपञ्चतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः। ततो गत्यन्तराभावात्, ज्ञानमात्मेत्यायात्यतः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात्। एवं सति य आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति स तु परमार्थ एव। एवं ज्ञानज्ञानिनौ भेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते न किञ्चिदप्य तिरिक्तम्।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा ९-१० २. पञ्चाध्यायी/प्रथम अध्याय/श्लोक ५२४, ५२७-५२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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