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________________ गाथासप्तशती णिम्मल गअणतलाए ताराअणकुसुमभिअम्मि तिमिरम्मि । जलम्मि केरववालो चरइ मिअंको मरालो व्व ।। अर्थ-तडाग (तालाब) के समान आकाश में फूलों के समान तारागणों से भरे अन्धकार में कुमुदों का पालक चन्द्रमा यों विचरता है जैसे जल में मराल । इसकी व्याख्या रूपक मान कर नहीं की जा सकती क्योंकि उस स्थिति में तडाग का प्राधान्य हो जायेगा जो अप्रस्तुत मराल के अनुकूल तो है परन्तु प्रस्तुत चन्द्र के प्रतिकूल है । वर्णन प्रस्तुत के ही अनुकूल होना चाहिये । ५. विट्ठीइ जंण विट्ठो, सरलसहावाइ जं च णालविओ। उवआरो जंण कओ, तं चिअ कलिअं छइल्लेहिं ॥ ७१५ ॥ दृष्ट्या यन्न दृष्टः सरलस्वभावया यच्च नालपितः। उपकारो यन्न कृतस्तदेव कलितं विदग्धैः ।। "जो कि दृष्टि से न देखा, सरल स्वभाव वाली ने जो कि उपकार न किया उसे छैलों ने जान लिया।' उपयुक्त अनुवाद के पश्चात् अनुवादक ने विमर्श में यह टिप्पणी दी है 'स्नेह जाहिर करने का यह भी एक ढंग है।" यद्यपि इस गाथा की व्याख्या मेरे द्वारा अनूदित वज्जालग्ग में की जा चुकी है, फिर भी चौखम्बा संस्करण में विद्यमान भ्रान्तियों का निवारण आवश्यक समझता हूँ। __ प्रसंगानुसार 'उवआर' का संस्कृत रूपान्तर 'उपचार' होगा, उपकार नहीं। यह शब्द गाथा में सामान्य शिष्टाचार के अर्थ में प्रयुक्त है। उपयुक्त हिन्दी अनुवाद में "उपकार न किया' के स्थान पर "उपचार न किया" कर देने पर अर्थ शुद्ध हो जायेगा । अनुवादक के अनुसार गाथा में वर्णित नायिका का नायक के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी स्नेह जाहिर करने का एक ढंग है । यह उनका भ्रममात्र है । वस्तुतः यह स्नेह प्रकट करने की पद्धति ही नहीं है, यह तो स्नेहनिगहन की पद्धति है । गाथा की नायिका विदग्धों से अपना और नायक का प्रच्छन्न प्रणय-सम्बन्ध छिपाना चाहती है। अतः उसके प्रति उपेक्षा का बाह्य प्रदर्शन करती है, परन्तु विदग्ध तो विदग्ध ही हैं । उपेक्षा में भी छिपे प्रणय को ताड़ लेते हैं । 'तं चिअ कलि अं' का भाव यह है कि विदग्धों ने उस उपेक्षात्मक व्यवहार को ही विशेष रूप से लक्षित किया और प्रणय का रहस्य समझ लिया । ६. सेउल्लणिअम्बालग्गसण्हसिचअस्स मग्गमलहन्तो। सहि मोहघोलिरो अज्जतस्स हसिओ मए हत्थो ॥७१८॥ सेकानितम्बालग्नश्लक्ष्ण सिचयस्य मार्गमलभमानः। सखि ! मोहघूर्णनशीलोऽद्य तस्य हसितोमया हस्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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