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________________ अर्थनिरूपण स्त्रियों ) के द्वारा परित्यक्त हो चुका है। ( अर्थात् वे भी शृंगार के लिये तेरे पुष्पों का उपयोग नहीं करती हैं ।) आशय यह है कि सुगन्ध की उत्कटता के कारण तुझे गर्वित नहीं होना चाहिये । तुझमें दोष भी है । निर्बल सनझी जाने वाली स्त्रियों की भी दृष्टि में तुम महत्त्वहीन हो। वे तुम्हारे पुष्पों का उपयोग नहीं करतीं। अथवा तुम इतनी अभागिन हो कि कमनीय कामिनियों के भी साहचर्य से वंचित हो चुकी हो। ४. निर्मलगगनतडागे तारागणकुसुमभिते तिमिरे । भिकरवोबालं चरति मृगाको मराल इव ॥ ७१४ ॥ "भिकरवोबालं यह पद बिलकुल अस्पष्ट है।" ____ उपयुक्त गाथा की भाषा न तो शुद्ध संस्कृत है और न विशुद्ध प्राकृत । पाठ नितान्त अशुद्ध और खंडित है । मूल प्राकृत-पाठ नष्ट हो गया है । अतः उपलब्ध विकृत संस्कृत-पाठ का परिमार्जन करने के पश्चात् ही प्राकृत-पाठ की अवतारणा हो सकेगी। तृतीय पाद में तीन मात्राओं की न्यूनता है। अक्षरों का लोप और मात्राओं के इधर उधर हो जाने के कारण सम्पूर्ण वर्णन निरर्थक बन गया है । यदि 'भि' को सप्तमी विभक्ति 'म्मि' का अवशेष भाग मानकर उसके पूर्व 'जल' शब्द और जोड़ देते हैं तो सार्थक पद 'जलम्मि' बन जाता है । करवो पद अर्थ हीन है । गाथा में मृगाङ्क ( चन्द्रमा ) का वर्णन है । अतः वह उसी से सम्बद्ध किसी पदार्थ का वाचक होगा । चन्द्रमा और कुमुद का सम्बन्ध साहित्य में प्रसिद्ध है । कुमुद का पर्याय कैरव है। अतः यहाँ प्राकृत शब्द केरव होना चाहिये । 'वो' में 'ओ' को मात्रा की कोई सार्थकता नहीं है । उसका उचित स्थान 'बालं' का लकार है जहाँ बिन्दु के रूप में मात्रा का शिरोभाग शेष रह गया है। इस प्रकार हम पाठ संशोधन के प्रयास में 'केरव' बालो तक पहुँचते हैं। यदि केरवबालो को केरव वालो ( कैरवपाल: ) पढ़ लेते हैं तो आर्थिक जटिलता का निवारण हो जाता है । तृतीय पाद का सम्पूर्ण संशोधित पाठ यह है जलम्मि कैरवपाल, जले कैरवपालः ? गाथा के पूर्वार्ध में 'भिते' का परिमार्जित रूप ‘भूते' होगा। अब उपलब्ध संस्कृत गाथा का जो स्वरूप निर्णीत होता है वह इस प्रकार है निर्मल गगनतडागे तारागणकुसुमभृते तिमिरे । जले कैरवपालश्चरति मृगाको मराल इव ।। यह तो रही संस्कृतच्छाया अब इसी के आधार पर मूल प्राकृत पाठ यह होगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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