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________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३४३ लिखीं। एक ग्रन्थ में वलड नगर का उल्लेख होने से राजस्थान व गुजरात इनके कार्यक्षेत्र रहे होंगे ।' अपभ्रंश एवं अभिलेख : राजस्थान के अधिकांश अभिलेख संस्कृत भाषा के उपलब्ध होते हैं, किन्तु १०वीं शताब्दी के पश्चात् के अभिलेखों में अपभ्रंश के शब्दों का भी प्रयोग देखने को मिलता है । गोडवाड़, सिरोही, आबू, मेवाड़ एवं अन्यभागों से प्राप्त कई अभिलेखों में अपभ्रंश व देशी भाषा के बहुत से शब्द प्रयुक्त हुए हैं । १११० ई० के सेवाड़ी अभिलेख, ११४३ ई० का नाडलाई लेख, ११५३ ई० का खेड अभिलेख आदि कई ऐसे उदाहरण हैं । (३) संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार: जन समुदाय की रुचि के प्रति जैनाचार्यों की जागरूकता के कारण संस्कृत भाषा को भी वही प्रतिष्ठा दी गई, जो कि प्राकृत व अपभ्रंश को । जिस समय से समाज में वैदिक एवं बौद्ध संस्कृत साहित्य का प्रभाव अधिक बढ़ा, उसी समय से जैन साहित्य में संस्कृत को स्थान मिलने लगा । धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में तर्क पद्धति के विकास के कारण तथा वैदिक व बौद्ध आचार्यों से वाद-विवाद करने की दृष्टि से, जैनाचार्यों ने संस्कृत को अधिक महत्त्व देना प्रारम्भ कर दिया । यह प्रवृत्ति ईसा की दूसरी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तपाई जाती है । ८वीं शताब्दी के पश्चात् राजस्थान में सृजित जैन संस्कृत ग्रन्थों की रचना की पृष्ठभूमि में, यहाँ की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति अधिक प्रभावशाली रही । सामान्यतया जैनाचार्यों ने जैन धर्म के सिद्धान्तों के प्रसार की भावना, प्रभावशाली पदासीन राज्याधिकारी, गुरु या श्रावकों की प्रार्थना तथा धार्मिक महापुरुषों के यशोगान आदि से प्रेरित होकर संस्कृत में जैन साहित्य का निर्माण किया । एक सम्भावित कारण यह भी है कि मूलतः ब्राह्मण होने के कारण अधिकांश जैनाचार्य बचपन से ही संस्कृत के ज्ञाता होते थे, अतः ज्ञान व प्रतिभा के उचित विकास के लिये उन्होंने संस्कृत भाषा को साहित्य सृजन के माध्यम के रूप में अपनाया । राजस्थान में संस्कृत साहित्य लेखन की निश्चित तिथि ज्ञात नहीं है, क्योंकि प्राचीन रचनाओं में रचनाकाल व रचनास्थल का वर्णन बहुत कम देखने को मिलता है । साथ ही संतों की यायावरी प्रवृत्ति के कारण ग्रन्थ के रचना स्थल का पता अन्य स्रोतों से लगाना पड़ता है । ऐतिहासिक सामग्री से ज्ञात होता है कि चित्तौड़ अनेक जैनाचार्यों का कार्यक्षेत्र रहा । उनमें से ५वीं शताब्दी के आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने जैन न्याय पर “न्यायावतार” ग्रन्थ संस्कृत में सर्वप्रथम रचा। इसके पश्चात् ८वीं शताब्दी के हरिभद्र १. जैसरा पृ० २३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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