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________________ प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा सुखलाल संघवी एवं मुनि जिनविजय के संपादन में प्रकाशित हुई है। हेतुबिन्दुटीका-धर्मकीर्ति की रचना हेतुबिन्दु पर अर्चट की यह टीका बौद्ध प्रमाणशास्त्र के लिए वरदान है । यह मूलमंथ के प्रत्येक शब्द का स्फुट रूपेण विश्लेषण करती है । इस टीका से ही पं० सुखलाल संघवी ने धर्मकीर्ति का हेतुबिन्दु तैयार किया है । जो हेतुबिन्दुटीका के परिशिष्ट में उपलब्ध हेतुबिन्दुटीका में स्वभाव,कार्य एवं अनुपलब्धि रूप त्रिविध हेतुओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। यथाप्रसंग क्षणिकवाद में अर्थक्रियासिद्धि आदि का वर्णन किया गया है। पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व,विपक्षव्यावृत्ति रूप त्रिरूपत्व हेतु का विधान करने के साथ असिद्ध,विरुद्ध व अनैकान्तिक हेत्वाभासों को समझाया गया है । अर्चट ने हेतुबिन्दुटीका में जैनदर्शन के सिद्धान्त स्याद्वाद का ४५ पद्यों में खण्डन प्रस्तुत किया है । १०६ द्रव्य एवं पर्याय में कथञ्चत् अव्यतिरेकिता का प्रतिपादन करने वाले समन्तभद्र के श्लोक' का भी अर्चट द्वारा खण्डन किया गया है ।१०८ इसी प्रकार उन्होंने जैन दार्शनिक उमास्वाति के सत्लक्षण विधायक सूत्र ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' (तत्त्वार्थसूत्र,५.२९) का भी निरसन करते हुए सत् को क्षणिक सिद्ध किया है।०९। प्रज्ञाकरगुप्त एवं प्रमाणवार्तिकभाष्य (आठवीं शती) प्रज्ञाकरगुप्त ने धर्मकीर्ति की उत्कृष्टरचना प्रमाणवार्तिक पर भाष्य की रचना की है, जिसे प्रमाणवार्तिकालंकार या प्रमाणवार्तिकभाष्य कहा जाता है। प्रमाणवार्तिकालङ्कार धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक के तीन परिच्छेदों पर लिखा गया भाष्य है। इसमें स्वार्थानुमान परिच्छेद पर भाष्य नहीं है। इसके गद्य एवं पद्य का कुल परिमाण १६,२०० श्लोक जितना आंका गया है। श्री राहुल सांकृत्यायन ने प्रज्ञाकरगुप्त को धर्मकीर्ति का प्रशिष्य कहा है तथा इन्हें,तिब्बती परम्परानुसार ७०० ई. के आस पास रखा है । ११° सतीशचन्द्र विद्याभूषण ,श्वेरबात्स्की आदि विद्वानों ने उन्हें १० वीं शताब्दी का दार्शनिक स्वीकार किया है,१११ किन्तु जैनाचार्य अकलङ्क (८वीं शती) अपने विभिन्न न्याय ग्रंथों में ,अनन्तवीर्य (९वीं शती) सिद्धिविनिश्चयटीका में,विद्यानन्द (९वीं शती) अष्टसहस्त्री में तथा प्रभाचन्द्र (११ वीं शती) प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रज्ञाकर का उल्लेख करते हुए भूरिश : खण्डन करते हैं । जयन्तभट्ट एवं उदयन भी प्रज्ञाकर का खण्डन करते हैं । अतः प्रज्ञाकर को आठवीं सदी के प्रारम्भ से आगे नहीं ले जाया जा सकता। महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य इन्हें ६७०-७२४ ई. के मध्य १०६. हेतुबिन्दुटीका, पृ० १०४. १०७. द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकत:। परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावत: ॥–आप्तमीमांसा,७१ १०८. हेतुबिन्दुटीका, पृ० १०५.१५ १०९. हेतुबिन्दुटीका, पृ. १४६ ११०. प्रमाणवार्तिकभाष्य, प्रस्तावना, पृ०८ १११. Buddhist Logic, Vol I., p. 43. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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