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________________ २४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा धर्मोत्तर का समय श्वेरवात्स्की ने ८०० ई. के आस-पास निर्धारित किया है ।१०२ राहुल सांकृत्यायन ने ७२५ ई. माना है ,किन्तु पं० दलसुख मालवणिया ने उन्हें ७०० ई. से भी कुछ पूर्व का स्वीकार किया है ।१०३ न्यायबिन्दुटीका-धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु पर धमोत्तर की यह टीका विस्तृत,विशद एवं महत्त्वपूर्ण है। न्यायबिन्दु की टीकाओं में इसका सर्वोत्तम स्थान है और इसका प्रमाण इस टीका पर लिखी गयी उपटीकाएं हैं। इससे पूर्व जो टीकाएं की गयीं वे शब्दार्थपरक थीं, किन्तु धर्मोत्तर की इस टीका से तात्त्विक अभिप्राय को स्पष्ट करने का कार्य प्रारम्भ हुआ । इस टीका का आकार १४७७ श्लोक परिमाण आंका गया है। न्यायबिन्दुटीका की उपटीकाओं या टिप्पणों का क्रम इस प्रकार है-(१)मल्लवादी कृत धर्मोत्तर टिप्पण (२) तात्पर्यनिबन्धनटिप्पण (३) न्यायबिन्दुटीकाटिप्पणी (४) धर्मोत्तरप्रदीप। मल्लवादी कृत धर्मोत्तरटिप्पण की प्रतियां जैसलमेर एवं पाटन के भण्डारों में विद्यमान है। मल्लवादी नाम से टिप्पणकार जैन प्रतीत होते हैं, किन्तु ये द्वादशारनयचक्र के कर्ता मल्लवादी क्षमाश्रमण से भिन्न हैं । इनका समय पं० दलसुख मालवणिया ने ७००-७५० ई. के मध्य स्वीकार किया है । तात्पर्यनिबन्धटिप्पण की एक ताडपत्र प्रति मुनि पुण्यविजय जी को प्राप्त हुई थी, किन्तु इस पर लेखक को प्रशस्ति एवं नाम नहीं है । न्यायबिन्दुटीकाटिप्पणी का संपादन बिब्लिओथिका बुद्धिका नं० ११ में श्वेरबात्स्की ने किया है,जो सेन्टपीटर्सबर्ग से १९०९ ई. में प्रकाशित हुई है, किन्तु वह अपूर्ण है । इसके भी लेखक का नाम अज्ञात है । न्यायबिन्दुटीका पर अनुटीका धर्मोत्तरप्रदीप सर्वाधिक प्रसिद्ध है,अतः उसकी चर्चा दुवैकमिश्र के प्रसंग में आगे अलग से की गयी है। अर्चट (सातवीं आठवीं शती) धर्मकीर्ति के टीकाकारों में अर्चट का महत्त्वपूर्ण स्थान है । अर्चट का दूसरा नाम धर्माकरदत्त है जो उन्हें भिक्षु के रूप में प्रस्तुत करता है । अर्चट काश्मीरी थे ऐसा लामा तारानाथ के कथन से ज्ञात होता है । १०४ पं० सुखलाल संघवी ने अर्चट को धर्मकीर्ति के पश्चात् तथा धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर गुप्त, आदि के पूर्व का मानकर उन्हें सातवीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं आठवीं सदी के पूर्वार्द्ध में निर्धारित किया है।१०५ दुर्वेक मिश्र के हेतुबिन्दुटीकालोक एवं स्वयं अर्चट की टीका से विदित होता है कि अर्चट की तीन कृतियां थीं - क्षणभंगसिद्धि ,प्रमाणद्वित्वसिद्धि एवं हेतुबिन्दुटीका, किन्तु दुर्भाग्य से इनमें हेतुबिन्दुटीका ही वर्तमान में उपलब्ध है,जो सन् १९४९ ई. में ओरियण्टल इंस्टीट्यूट,बड़ौदा से पं० 207. Buddhist Logic, Vol I, p. 41 १०३. धोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ०५३ १०४. A History of Indian Logic, pp. 329-32 १०५. हेतुबिन्दुटीका, प्रस्तावना, पृ० १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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