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________________ २८६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन स्पष्ट है कि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप त्रिविध साधना मार्गं इसी से विकसित हुआ है। जहां अहिंसा सम्यक् चारित्र की पोषक है वहीं प्रज्ञा में सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान का अन्तर्भाव हो जाता है । समाधि को सम्यक् चारित्र या सम्यक् तप का अंग माना जा सकता है । वैसे आचारांग में सम्यक् दर्शन शब्द का प्रयोग भी मिलता है । यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि आचारांग में दर्शन शब्द श्रद्धापरक अर्थ की अपेक्षा दृष्टिपरक अर्थ में ही अधिक प्रयुक्त हुआ है । उसमें 'पास' शब्द का प्रयोग भी देखा जाता है जो 'द्रष्टाभाव' का सूचक है । आचारांग में द्रष्टाभाव में स्थित होने को ही सम्यक् दर्शन माना गया गया है । यद्यपि आचारांग में कुछ स्थानों पर श्रद्धा का उल्लेख भी देखा जाता है । एक स्थान पर कहा गया है कि साधक को जिन-प्रवचन के प्रति निःशंक होना चाहिये । जहाँ तक सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का प्रश्न है वे आचारांग में प्रतिपादित हैं ही, चाहे किसी भिन्न शब्दावली में क्यों न हों । इस प्रकार सम्यक् ज्ञान-दर्शन और चारित्र रूपी त्रिविध साधना - मार्ग भी आचारांग में कुछ भिन्न शब्दावली के साथ पाया जाता है । आचारांग में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों में अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है । उस में धर्म की स्पष्ट रूप से दो व्याख्याएँ मिलती हैं, एक स्थान पर यह कहा गया है कि आर्यजनों ने समता में धर्म कहा है' तो दूसरे स्थान पर अहिंसा को सार्वभौम धर्म प्रतिपादित करते हुए यह कहा गया है कि भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमान में जो हैं तथा भविष्य में जो होंगे वे इसी बात का उपदेश देते हैं कि किसी को मारना नहीं चाहिये, सताना नहीं चाहिये - यही एकमात्र शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है । वस्तुत: अहिंसा और समता दो भिन्न धर्म नहीं हैं | अहिंसा जब आन्तरिक बनती है तो वह समता होती है और समता जब बाह्य जीवन में अभिव्यक्त होती है तो अहिंसा बन जाती है । आचारांगकार ने इस अहिंसा को आत्मवत् दृष्टि के आधार पर स्थापित किया है और इसी आत्मवत् दृष्टि को नैतिकता का नियामक तत्त्व बताया है । अहिंसा में भावना और विवेक दोनों सम्मिलित हैं । वे बौद्धिक भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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