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________________ उपसंहार : २८५ मूल लक्ष्य निर्द्वन्द्व एवं निर्विकल्प आत्मतोष की अवस्था है और इस साध्य की प्राप्ति के लिये आचारांग एक सुव्यवस्थित साधना-विधि प्रस्तुत करता है। ___ आचारांग क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों पर विजय का जो मार्ग बताता है वह उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचायक है। आचारांग के अनुसार इन कषायों पर विजय का एक ही मार्ग है और वह है उनके प्रति अप्रमत्त या जागृत रहना । आचारांग बहुत स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करता है कि आत्मा जब अपने विषय-वासनाओं या कषायों के प्रति जागृत हो जाता है तब ये वृत्तियां उसे ठीक उसी प्रकार छोड़कर चली जाती हैं जैसे मकान मालिक के जागने पर चोर चुपचाप भाग जाते हैं। ___आचारांग का एक ही सन्देश है कि उठो, प्रमाद मत करो (उठ्ठिए नो पमाइए)। आचारांग साधक के लिये यद्यपि कठोर साधना मार्ग का प्रतिपादन करता है फिर भी वह दमन का समर्थक नहीं है। वह यह मानता है कि इन्द्रियों का जब तक अपने विषयों के प्रति राग नहीं छूटता है तब तक उनके दमन की कोई सार्थकता नहीं। अतः आचारांग की साधना का मूल लक्ष्य विषय राग को समाप्त करना है। इस तथ्य को आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में स्पष्ट रूप से विवेचित किया गया है। _ आचारांग में साधना मार्ग का विशिष्ट अर्थ में प्रतिपादन किया गया है । यद्यपि जैन धर्म में सामान्यतया साधना मार्ग का तात्पर्य सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय से लिया जाता है। किन्तु आचारांग एक दूसरे प्रकार के त्रिविध साधना-मार्ग को प्रस्तुत करता है जो कि उसकी अपनी विशेषता है। उसमें अहिंसा, समाधि और प्रज्ञा के रूप में त्रिविध साधना-मार्ग का विवेचन हुआ है। आचारांग स्पष्ट रूप से कहता है 'निक्खित दण्डाण समाहियस्स पण्णाण मन्ताण इह मुत्तिमग्गं' अर्थात् अहिंसा, समाधि और प्रज्ञा मुक्ति मार्ग हैं। आचारांग का यह साधना मार्ग हमें बौद्ध धर्म के प्रज्ञा, शील और समाधि रूप त्रिविध साधना पथ का स्मरण दिला देता है । अन्तर केवल इतना ही है कि बौद्ध दर्शन में जहां शील शब्द का प्रयोग हुआ है, वहां आचारांग में निक्खित्तदण्डाण (अहिंसा) शब्द का प्रयोग हुआ है क्योंकि आचारांग की दृष्टि में अहिंसा ही शील की पर्यायवाची है। यह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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