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________________ श्रमणाचार : २५९ समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को परम आदरपूर्वक अशन, पान, खाद्य (आदिम) स्वाद्य ( खादिम), वस्त्र - पात्र, कम्बल पादपोंछन आदि दे, उन्हें देने के लिये निमंत्रित करे और अत्यन्त आदरपूर्वक उनकी वैयावृत्त्य ( सेवा-शुश्रूषा ) करे । २१९ रोगी भिक्षु के सम्बन्ध में कहा गया है कि एक भिक्षु अपने साधर्मिक और ग्लानभिक्षु की पारस्परिक उपकार एवं निर्जरा की दृष्टि से अशनादि चतुर्विध आहार के द्वारा वैयावृत्त्य करता है और उनके द्वारा की जाने वाली सेवा को स्वीकार भी करता है । इस तरह सेवा करने वाले मुनि के वैयावृत्त्य तप होता है । २२० (४) स्वाध्याय : प्रमादादि का त्याग कर आत्म-विकासकारी शास्त्रों का अध्ययन, मनन करना स्वाध्याय तप है । स्वाध्याय के नाम से ही स्पष्ट है कि स्वस्थ स्वस्मिन् वा अध्यायः इति स्वाध्यायः' अर्थात् जिसमें आत्म स्वरूप का अध्ययन या चिन्तन किया जाय वह स्वाध्याय है । आचारांग में स्वाध्याय भूमि के चयन तथा शारीरिक कुचेष्टाओं का त्याग कर साधु को स्वाध्याय में किस प्रकार संलग्न रहना चाहिये इस पर प्रकाश डाला गया है । एक तो निर्दोष व एकान्त स्वाध्याय भूमि का चयन करना चाहिये तथा दूसरे स्वाध्याय भूमि में गये हुये वे साधु परस्पर एक दूसरे के शरीर का आलिंगन न करें, न मुख चुम्बन करें, दाँतों या नखों से शरीर का छेदन भी न करे तथा जिस क्रिया या चेष्टा से मोह उत्पन्न होता हो इस तरह की कोई भी क्रिया न करें। स्वाध्याय में सदा यत्नशील रहें । २२१ (५) ध्यान : ध्यान के बिना आध्यात्मिक विकास सम्भव ही नहीं है । चित्त की स्थिर अवस्था ध्यान है अर्थात् विभिन्न क्रियाओं में भटकने वाली चंचल चित्तवृत्ति को किसी एक ही आलम्बन या विषय में स्थिर, निरुद्ध या केन्द्रित कर देना ध्यान तप है । आचारांग में महावीर की जीवन-साधना के सन्दर्भ में ध्यान विषयक अवधारणा मिलती है इसके अतिरिक्त ग्रन्थ ध्यान का स्वरूप, प्रकार या उनके भेद-प्रभेद आदि का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है । (६) व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग : यस साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । व्युत्सर्गं का अर्थ हैत्याग | वह दो प्रकार का है - बाह्य और आभ्यन्तर । जैन परिभाषा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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