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________________ २५८ : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन मण्डप, तलघर आदि स्थानों में निवास करने से मुनि को कोई दोष नहीं लगता है अर्थात ऐसे स्थानों में ठहरना कल्पता है ।२११ महाश्रमण महावीर भी प्रायः ऐसे विविक्त स्थानों में निवास करते थे ।२१२ इस प्रकार उपर्युक्त छः प्रकार शारीरिक या बाह्य तप साधना के हैं । आभ्यन्तर तप: जिस तप में बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा मानसिक क्रिया की प्रधानता रहती है और जिसका सम्बन्ध अन्तःशुद्धि से विशेष रहता है वह आभ्यन्तर तप कहलाता है। आत्म-परिशुद्धि की अपेक्षा इस तप का श्रमण-जीवन में अत्यधिक महत्त्व है । यह छः प्रकार का है(१) प्रायश्चित्त : जिससे प्रमादजनित दोषों या अपराधों का शोधन किया जाता है, वह प्रायश्चित्त तप है । आचारांग टीका एवं विभिन्न ग्रन्थों में प्रायश्चित्त के दस भेद बताए गए हैं । आचारांग में कहा है कि छठे गुणस्थानवर्ती मुनि से प्रमादपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए जो कर्म-बन्ध होता है, उसका विलय विवेकादि प्रायश्चित्त के द्वारा होता है ।२१३ (२) विनय : ज्ञानादि गुणों का बहुमान करना तथा गुरुजनों के प्रति आदर या सम्मान भाव रखना ही विनय तप है । ग्रन्थ में विनय के चार२१४ एवं सात भेद बतलाये गये हैं । आचारांग में कहा है कुछ असित ( अणगार) आचार्यादि का अनुगमन करते हैं ।२१५ जिनाज्ञाओं एवं उपदेशों के प्रति आदर रखना और तदनुरूप आचरण करना चारित्र विनय है। इस सन्दर्भ में, आचारांग में कहा है कि जिन शासन में स्थित आज्ञाकांक्षी ( आगमानुसार या सर्वज्ञोपदेशानुसार अनुष्ठान करने वाला ) पंडित पुरुष आज्ञाप्रिय होता है वह रात्रि के प्रथम एवं अन्तिम प्रहर (स्वाध्याय ध्यानादि ) में यत्नवान् रहता है और सदाशील की सम्प्रेक्षा करता हुआ काम और मायादि से मुक्त हो जाता है । २१६ पुनश्च मेधावी पुरुष निर्देश का अतिक्रमण न करे।२१७ इसी तरह 'तमेव सच्चंणीसंकं जंजिणेहिं पवेदितं' अर्थात् वही सत्य है जो जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित है इसमें शंका के लिए कोई अवकाश नहीं है ।२१८ इस प्रकार जिनोपदेश में निःशंक होना दर्शन या श्रद्धा-विनय है। (३) वयावृत्त्य: अपने शरीर द्वारा आचार्यादि की आहारादि के द्वारा सेवाशुश्रूषा करना वैयावृत्त्य तप है । आचारांग में वैयावृत्त्य के सम्बन्ध में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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