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________________ श्रमणाचार: २५३ जिन धर्मशाला आदि स्थानों में जो श्रमण-श्रमणी शीतोष्ण काल में मासकल्पादि तथा वर्षा काल में चातुर्मास कल्प बिताकर बिना कारण विशेष के पुनः पुनः वहीं आकर वास करते हैं तो वे काल का अतिक्रमण करते हैं अर्थात् कालातिक्रम दोष लगता है ।१८४ अतः श्रमण-श्रमणी को मासकल्प एवं चातुर्मास कल्प के पश्चात् बिना किसी कारण के काल का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। उत्तराध्ययन में कहा है कि काल-मर्यादा का पालन करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा करता है ।१८५ विशेष श्रमणाचार : श्रमण-श्रमणी यथासमय अपने कर्मो की विशेष रूप से निर्जरा करने तथा अपने नैतिक जीवन में निखार लाने के लिए विशेष आचरणों या श्रम के द्वारा अपने आपको तपाता है और उनमें तपकर शुद्ध बन जाता है। समभावपूर्वक सब कष्टों को सहता हुआ अन्ततः उन पर विजय प्राप्त करता है । यही विशेष श्रमणाचार है । यहाँ विशेष श्रमणाचार के विषय में क्रमशः प्रकाश डाला जा रहा है। तपश्चर्या : आचारांग में श्रमण-श्रमणियों के चारित्रिक निखार, दृढ़ आत्मसंयम व अन्तःशुद्धि हेतु तपश्चर्या की महती आवश्यकता प्रतिपादित है क्योंकि तपःसाधना पूर्व-बद्ध कर्म पुद्गलों को निजीर्ण कर स्व-शक्ति को प्रकट करने के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। 'तप' की महत्ता को आंकते हुए आचारांग में कहा है कि यह एक प्रकार की अग्नि है, जिसके द्वारा पुराने कर्मों को शीघ्र ही भस्मीभूत किया जा सकता है। जैसे अग्नि जीणे काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही आत्मसमाधिस्थ और अनासक्त आत्मा कर्म-शरीर को शीघ्र जला डालती है। यही शद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि है, यही आत्मा का विशुद्धीकरण है और यही तपसाधना का लक्ष्य है। इसीलिए प्राचीनतम जैनागमों एवं परवर्ती ग्रन्थों के मंथन से एक हो स्वर झंकृत होता है 'तवेण परिसुज्झई' तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है । ८७ ___ 'तप्यते अनेन इति तपः' अर्थात् जिसके द्वारा तपाया जाय वह तप है । पद्मनंदि पंचविंशतिका में भी तप का लक्षण करते हुए कहा हैसम्यग्ज्ञानरूपी चक्षु के धारक मुनि के द्वारा कर्मरूपी मैल को दूर करने के लिए जो तपा जाता है, उसे तप कहते हैं । १८८ तप के भेद : आचारांग में बारह प्रकार के तपाचरण का वर्णन उपलब्ध होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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