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________________ २३२ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन और स्वर्ण-पात्र, पीतल का पात्र, मणि, काँच और कांसी के पात्र शंख और श्रृंग से बने हुये पात्र, दाँत, वस्त्र, पत्थर और चर्म के पात्र । इसी प्रकार विविध मूल्य वाले पात्र, अप्रासुक एवं अनेषणीय समझ कर ग्रहण नहीं करने चाहिये। तथा काष्ठादि के ग्राह्य पात्र भी, जो कि धातु से सवेष्टित हैं अर्थात् उन पात्रों पर भी यदि लौह, स्वर्ण, चर्म आदि के बहुमूल्य बन्धन लगे हों तो मुनि ग्रहण न करे किन्तु उक्त दोषों से रहित पात्र ग्रहण कर सकता है। पात्र को गवेषणा: मुनि को ऊपर कथित उद्दिष्ट, प्रेक्षित, भुक्त और उज्झित धर्म युक्तचार प्रतिज्ञाओं के अनुसार पात्र की गवेषणा करनी चाहिये । शेष मर्यादाएँ वस्त्रषणा के समान ही समझना चाहिये । ११७ शय्यैषणा ( बसतो-उपाश्रय): अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि निर्दोष आहार ग्रहण करने के पश्चात् कहाँ ठहरा जाए ? आचारांग में कहा गया है कि श्रमण-श्रमणी को आधार्मिक आदि दोषों से युक्त उपाश्रय या मकान का त्याग कर निर्दोष शय्या को स्वीकार करना चाहिए जिससे संयम साधना में निखार आ सके। सदोष और निर्दोष शय्या : ____ साधु को क्षुद्र जीव जन्तुओं, अण्डे, जाले, बोज और अनाज के दानों से युक्त स्थान में स्वाध्याय कार्योत्सर्गादि नहीं करना चाहिए, किन्तु यदि कोई स्थान उक्त दोषों से रहित हो तो उसका प्रतिलेखन कर वहाँ स्वाध्याय, ध्यानादि कर सकता है। _जो उपाश्रय या स्थान साधु के उद्देश्य से बनाया गया हो, खरीद कर, उधार लेकर या छीनकर लिया गया हो, गृहस्थों ने उसे उपयोग में लिया हो या नहीं लिया हो-साधु-साध्वी के लिये अकल्प्य है। इसी तरह एक या अनेक साधु-साध्वी के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये। जो स्थान शाक्यादि भिक्षु के निमित्त से तैयार किया गया हो और वह किसी के द्वारा उपयोग में ले लिया गया हो तो मुनि उसमें ठहर सकता है। जिस उपाश्रय या मकान को साधु के निमित्त लीपा-पोता गया हो, संवारा गया हो, तृणादि से आच्छादित किया गया हो, काष्ठादि से संस्कारित किया गया हो, भूमि को समतल बनाया गया हो, वह उपाश्रय यदि अनासेवित हो तो साधु को उसमें नहीं ठहरना चाहिए और न ही कायोत्सर्गादि क्रिया करनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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