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________________ २२६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन और बर्तन से देने पर साधु को जल ग्रहण नहीं करना चाहिए।१२ चूर्ण से लिप्त पानी, तिल, चावल आदि का पानी तथा अन्य इसी प्रकार का पानी यदि तत्काल निकाला हुआ है, स्वाद नहीं बदला है, वर्णादि नहीं बदला है शस्त्र परिणत नहीं हुआ है तो वह पानी ग्राह्य नहीं है। इसी तरह आम्रफल, कपित्थफल, मातुलिंगफल, द्राक्षाफल, अनार, खजूर, करीर, नारियल, बेर, आँवला, इमली आदि का पानी, जो कि गुठली, छाल एवं बीज मिश्रित है तो वह पानी ग्राह्य नहीं है। यदि साधु के निमित्त से बाँस की छलनी, वस्त्र या बालों की छलनी से पानी छानकर तथा उसमें से गुठली बीज आदि छलनी से निकाल कर दें तो मुनि को वह भी पानी ग्रहण नहीं करना चाहिए। सात-सात प्रतिज्ञाओं के साथ आहार-पानी की गवेषणा : निर्दोष एवं रमणीय आहारादि प्राप्त करने का दृढ़तर अभ्यास करना ही इन प्रतिज्ञाओं का मुख्य उद्देश्य है। आत्मा के पूर्ण विकास या अहिंसा महाव्रत को शुद्ध रखने के लिये ये प्रतिज्ञाएँ सोपान रूप हैं। आचारांग में सात पिण्डैषणा और पानैषणा का वर्णन है, अतः साधुसाध्वी को इनका ज्ञान कर तदनुसार आचरण करना चाहिए। निम्नोक्त सातअभिग्रह पूर्वक निर्दोष आहार-पानी की गवेषणा करनी चाहिए। (१) अचित्त पदार्थों से अलिप्त हाथ एवं अलिप्त पात्र से आहार की याचना करना या गृहस्थ स्वयं दे तो प्रासुक जानकर ग्रहण कर लेना प्रथम पिण्डैषणा है । इसी अभिग्रहपूर्वक पानी को भी ग्रहण करना प्रथम पानेषणा है। (२) अचित्त वस्तु से लिप्त हाथ एवं पात्र से पूर्ववत् निर्दोष जानकर आहार ग्रहण करना द्वितीय प्रतिज्ञा है। इसी भाँति पानी ग्रहण की द्वितीय पानेषणा होती है। (३) अलिप्त हाथ और लिप्त भाजन तथा लिप्त हाथ और अलिप्त भाजन हो ऐसी प्रतिज्ञापूर्वक आहार की याचना करना तृतीय पिण्डैषणा और पानैषणा है। (४) तुषरहित चावल आदि को, जिसमें हाथ या पात्र धोने तथा पुनः आहार बनाने का पश्चात् कर्म नहीं है, ऐसा आहार ग्रहण करना चौथी पिण्डैषणा है । चौथी पानेषणा में इतना विशेष है कि तिल यव, आदि का पानी ग्रहण करने के बाद पश्चात् कर्म नहीं लगता है। (५) गृहस्थ ने सचित्तजल से हाथ आदि धोकर अपने खाने के लिए किसी बर्तन में भोजन रखा है। यदि उसके हाथ अचित्त हो चुके हैं तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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