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________________ श्रमणाचार : २२५ पश्चात् ऐवं कर्म दोष युक्त आहार का निषेध : श्रद्धालु सद्गृहस्थ अपने यहाँ पधारे हुए साधु-साध्वी को देखकर परस्पर बातचीत करे कि ये श्रमण संयम निष्ठ, शीलवान एवं परम ब्रह्मचारी हैं। आधार्मिक आहार इन्हें नहीं कल्पता है, परन्तु 'जो अपने लिए बना है वह इन्हें दे दें और अपने लिए फिर बना लेंगे'। इस तरह की बातचीत सुनकर साधु उक्त आहार को पश्चात् कर्म से दूषित जानकर ग्रहण न करे। __इसी तरह, किन्हीं कारणों से स्थिरवासी या विचारशील साधुसाध्वो के किसी गाँव या राजधानी में माता-पिता आदि सम्बन्धीजन निवास करते हैं तो उन्हें भिक्षा-काल के पहले ही उन घरों में भिक्षा हेतु नहीं आना-जाना चाहिए, क्योंकि भिक्षा के समय से पूर्व हो आए हुए देखकर ये वे उन मुनिराजों के लिए सदोष आहारादि तैयार करेंगे, अतः उन्हें पूर्व कर्म के दोष से बचना चाहिए । भिक्षा का समय हो तब सामुदायिक ( बहुत घरों की भिक्षा) रूप से निर्दोष आहार की एषणा करनी चाहिए। अधिक आहार आ जाने पर क्या करना चाहिये : यदि ग्रहण करने के बाद आहार अधिक बच गया हो तो साधु अपने समीपस्थ उपाश्रय में स्थित, साम्भोगिक, स्वधर्मी साध-साध्वियों से उस अवशिष्ट आहार को खाने के लिए निवेदन करना चाहिये। उन्हें निवेदन किये बिना या दिखाये बिना उस बचे हुए आहार को फेंकना नहीं चाहिए, यदि वह ऐसा करता है तो माया का सेवन करता है। पानीः नदी, तालाब आदि का पानी सचित्त होता है। अतः साधु-साध्वी को कैसा पानी लेना चाहिए, इसके लिए अनेक नियम बताये गये हैं। पानी की सदोषता एवं निर्दोषता : चूर्णलिप्त बर्तन का पानी ( आँटे का हाथ लगा हुआ पानी), तिल आदि का पानी, चावल का पानी तथा इसी प्रकार अन्य पानी जो कि शस्त्र-परिणत हो गया है, जिसका स्वाद या वर्णादि रस बदल गया है, ऐसा प्रासुक एवं एषणीय जल साधु-साध्वी ग्रहण कर सकते हैं । इसी तरह तिल, तुष, यव, चावल के धोवन एवं उष्ण-जल को भी ग्रहण कर सकते हैं। किन्तु सचित्त पृथ्वी पर, जीव जन्तुओं से संसक्त पदार्थ पर या सचित्त जल से गीले हाथों, सचित्त पृथ्वी, रज आदि से युक्त हाथों १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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