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________________ श्रमणाचार : २०९ मुनि कैसे चले: __ (१) श्रमण-श्रमणी विवेकपूर्वक चित्त को गति में एकाग्र कर, पथ पर दृष्टि टिका कर चले । जीव-जन्तु को देखकर, पैर को संकुचित करके और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर चले । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आचारांग में जो ईर्या समिति विषयक चर्या वर्णित है उसे दृष्टिगत रखते हुए द्वितीय श्रुतस्कंध में 'ईर्थेषणा' नामक अध्ययन का विस्तार से विवेचन किया गया है तथो गामाणुगामदुइज्जमाणस्स-इस सूत्र में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सम्पूर्ण ईर्या अध्ययन का मूल विद्यमान है। (२) द्वितीय श्रुतस्कंध में वर्णन है कि मुनि को यतनापूर्वक नीचे दृष्टि रखकर आगे चार हाथ भूमि देखते हुए चलना चाहिए । चलते हुए पैर के नीचे कोई जीव जन्तु दिखाई दे तो पैर को ऊँचा रखकर चलना चाहिए, संकुचित कर चलना चाहिए, टेढ़ा रखकर चलना चाहिए। यदि अन्य साफ मार्ग हो तो उस मार्ग से जाना चाहिए। किन्तु जीवयुक्त सीधे मार्ग पर नहीं चलना चाहिए। यदि छोटे रास्तों में बीज, हरियाली, जल, मिट्टी एवं क्षुद्र जन्तु अधिक हों तो साधु को उस सीधे और छोटे मार्ग को छोड़कर लम्बे रास्ते से ही विहार करना चाहिए। यदि अन्य मार्ग न हो तो विवेकपूर्वक उस रास्ते से विहार करे जिससे जीवों को कोई कष्ट न पहुंचे ।२ कब विहार न करे: (१) ईर्यापथ के नियमों के अनुसार वर्षा ऋतु में मार्ग में जीव-जन्तु, हरियाली उत्पन्न हो गई हो तो मुनि वर्षाकाल ( चातुर्मास ) पर्यन्त प्रवास न करे । एक ही स्थान पर ठहरे । (२) वर्षा ऋतु बीत जाने पर मार्ग-निर्दोष हो जाने पर मुनि को तत्काल विहार कर देना चाहिए किन्तु वर्षाऋतु के पश्चात् यदि पुनः वर्षा हो जाए और उसके कारण मार्ग में जीव-विराधना की सम्भावना हो तो विहार नहीं करना चाहिए।' किन प्रदेशों में न जाएं : । (१) अन्य मार्ग के होते हुए मुनि को दो-चार या पाँच दिन में उल्लंघन करने योग्य लम्बी अटवी के मार्ग से भी नहीं जाना चाहिए। (२) जहाँ चोर, म्लेच्छ, अनार्य लोग रहते हों, उन क्षेत्रों में विहार न करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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