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________________ १७८ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन क्रियाओं में संलग्न होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। साथ ही वे तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। ___अपकाय की हिंसा-अज्ञानी मनुष्य अनेक प्रकार की अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए जलकाय की हिंसा करता है, करवाता है तथा करने वालों की प्रशंसा करता है। साथ ही जलकाय के आश्रित अन्य द्वीन्द्रियादि जीवों की भी हिंसा करता है ।४९ ___ अग्निकाय की हिंसा-सूत्रकार ने बताया है कि प्रमादी जीव जीवनाकांक्षा, पूजा-प्रतिष्ठा आदि के लिए स्वयं अग्निकाय का समारम्भ करते, दूसरों से करवाते और करने वालों को अच्छा समझते हैं। अग्निकाय के आरम्भ-समारम्भ में अनेक जीवों की हिंसा होती है । पृथ्वीकाय के आश्रित तृण-पत्र, काष्ठ-गोबर, कूड़ा-कचरा आदि विभिन्न जीव तथा उसके आश्रित आकाश में उड़ने वाले कीट-पतंग, पक्षी आदि जीव भी प्रज्ज्वलित आग में आ गिरते हैं। अग्नि का स्पर्श पाकर उनका शरीर मूच्छित हो जाता है और वे प्राण त्याग देते हैं ।५० __ वायुकाय की हिंसा-इस प्रकार हिंसा में आसक्त जीव ऊपर चचित कारणों से प्रेरित होकर वायुकायिक जीवों की हिंसा करते, करवाते और करने वाले का अनुमोदन भी करते हैं। उड़ने वाले जीव वायु के आघात से सिकुड़ जाने के कारण मूच्छित होकर नीचे गिर पड़ते हैं, जिससे उनका प्राणान्त हो जाता है ।" । वनस्पतिकाय की हिंसा-आचारांग तथा परवर्ती जैनागमों में भी वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में बहुत ही सूक्ष्म एवं व्यापक चिन्तन हुआ है। वनस्पतिकाय की मानवीय शरीर के साथ जैसी तुलना की गई है, वह आधुनिक वैज्ञानिकों के लिए भी बड़ी उपयोगी एवं विस्मय कारक तथ्य है । सर जगदीशचन्द्र बोस ने वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा मानवीय चेतना की भाँति ही वनस्पति में भी चेतना को सिद्ध कर दिखाया है। सूत्रकार का कथन है कि जिस प्रकार मनुष्य जन्म लेता है, बढ़ता है, चेतनायुक्त है, छेदन-भेदन करने पर म्लान हो जाता है, आहार करता हैं, अनित्य एवं अशाश्वत है, चय-उपचय धर्म वाला अथवा परिवर्तनशील है, उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी समस्त धर्मों से युक्त है, किन्तु प्रमादी जीव उक्त कारणों से प्रेरित होकर वनस्पति काय की हिंसा करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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