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________________ पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १७७ कुछ मान-सम्मान की प्राप्ति के लिए, कुछ पूजादि के निमित्त अन्नवस्त्र, जल, पत्र-पुष्प या पशु-पक्षी का बलिदान करके देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए, कुछ जन्म-मृत्यु सम्बन्धी भोजन के लिए अथवा जन्म-मरण तथा मुक्ति के लिए और कुछ व्यक्ति दुःख प्रतिकार के लिए अनेक तरह की सावध अर्थात् हिंसात्मक प्रवृत्ति करते हैं, दूसरों से करवाते हैं तथा करने वालों का अनुमोदन करते हैं ।४४ सूत्रकार सकाय की हिंसा के विविध प्रयोजनों को बताते हुए कहते हैं कि इस लोक में कुछ व्यक्ति देवी-देवताओं की पूजा ( बलि व शरीर के शृंगार ) के लिए, जीव-हिंसा करते हैं। कुछ मनुष्य चर्म के लिए, मांग, रक्त, हृदय ( कलेजा ), पित्त, चर्बी, पंख व पूँछ के लिए हिंसा करते हैं, कुछ शृंग, विषाण ( सुअर के दाँत ), दाँत, दाढ़, नाखून, स्नायु, अस्थि, मज्जा आदि पदार्थों को पाने के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं। कुछ प्रयोजनवश और कुछ निष्प्रयोजन ही जीव-वध करते हैं। कुछ व्यक्ति 'इन्होंने मेरे स्वजन वर्ग की हिंसा की थी', इस प्रतिशोध की भावना से हिसा करते हैं । कुछ व्यक्ति ( मेरे स्वजनादिक) हिंसा कर रहे हैं, यह सोचकर हिंसा करते हैं और कुछ ( 'ये मेरे स्वजनादि की हिंसा करेंगे'४५ ) इस भावी आतंक की सम्भावना से वध करते है। हिंसा के कारणों के सम्बन्ध में आचारांग में अन्यत्र भी बतलाया गया है कि प्रमत्त मनुष्य, संयोगार्थी एवं अर्थलोलुप बनकर बारम्बार शस्त्र का प्रयोग करता है । वे शरीर-बल, ज्ञाति-बल, मित्र-बल, लौकिक बल, देवबल, राज-बल, चोरबल, अतिथि-बल, कृष्ण-बल आदि विविध प्रकार के कार्यों की सम्पूर्ति के लिए हिंसा का प्रयोग करते हैं। कोई भय के कारण, कोई पाप से मुक्त होने के लिए अथवा कोई अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की अभिलाषा से हिंसा करते हैं।४६ जीवन की आशंसा रखने वाले कुछ व्यक्ति इस निःसार एवं क्षणभंगुर जीवन के लिए वध करते हैं। यह भी कहा है कि वह अज्ञानी व्यक्ति रोगों के उपशमनार्थ भी दूसरे जीवों को हिंसा करता है ।४७ हिंसा के विविध रूप : पृथ्वीकाय की हिंसा-विषय-कषायादि से पीड़ित, विवेक शून्थ, एवं सुख के लिए आतुर व्यक्ति उक्त कारणों से प्रेरित होकर पृथ्वीकायिक जीवों को अनेक तरह से पीड़ित करते रहते हैं । कुछ साधु अपने आपको त्यागी कहते हुए भी विविध प्रकार के शस्त्र-प्रयोगों से हिंसात्मक १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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