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________________ पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १७३ अन्तर में मारने की वृत्ति जागृत होती है, राग-द्वेष की भावना उद्भूत होती है और वहाँ निश्चित रूप से हिंसा हो ही जाती है। भले ही, फिर बाह्यरूप किसी का प्राण-वध हो या न हो। दूसरे शब्दों में मन में कषायवृत्ति या प्रमाद-भाव का जागृत हो जाना ही भाव-हिंसा है और वही बन्धन है। आचाराङ्ग में हिंसा का एक दूसरा रूप भी वर्णित है और वह है-द्रव्य-हिंसा। द्रव्य-हिंसा में किसी जीव का प्राण-घात होता है। यदि उस प्राण-घात में मन की दुष्प्रवृत्ति नहीं जुड़ती है, प्रमाद और राग-द्वेषादि का संकल्प नहीं है तो वह प्राण-घात बाह्य रूप में हिंसा होते हुए भी हिंसा नहीं है क्योंकि उससे कर्म-बन्धन नहीं होता है । मूलतः कर्म-बन्ध राग-द्वेष-मोह, प्रमाद आदि मानसिक वृत्तियों से होता है। सूत्रकार का कथन है कि वीतरागी (शुद्धात्मा) को इसीलिए तो कोई कर्म बन्ध या व्यवहार नहीं होता,२८ क्योंकि उनका राग-द्वेष ( कर्मों के उपादान कारण ) नष्ट हो गया होता है ।२९ अतः जो सम्यक् द्रष्टा है वह पाप कर्म नहीं करता। वस्तुत. बन्धन मोह में है, राग-द्वेष में है, और प्रमाद-दशा में है। प्रमाद-दशा से किसी जीव का प्राण-घात करना हो हिंसा माना गया है। आचाराङ्ग में आसक्ति कषाय एवं प्रमाद-दशा को हिंसा का कारण बनाकर इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया गया है कि हिंसा का मूल आन्तरिक वृत्तियाँ हैं। भगवतीसूत्र में कहा है कि प्राण-घात स्थूल क्रिया है और प्रमाद-योग सूक्ष्म क्रिया है। प्राणघात द्रव्य-हिंसा और प्रमाद योग भाव-हिंसा कही जाती है। भाव-हिंसा एकान्त हिंसा है, जबकि द्रव्य-हिंसा एकान्त हिंसा नहीं है । भाव-हिंसा की विद्यमानता में होने वाली स्थूल हिसा हो वास्तव में हिंसा है।३० प्रमाद आदि दूषित मानसिक संकल्पों से सर्वप्रथम तो हन्ता का आत्मघात होता है और बाद में वह दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है । इस सन्दर्भ में पूज्यपाद स्वामी का कथन है कि प्रमादी व्यक्ति अपने हिंसात्मक भावों की स्व-हिंसा पहले ही कर डालता है उसके बाद दूसरे जीवों की हिंसा हो अथवा न हो।' पुरुषार्थसिद्धयपाय में ठीक यही बात कही गई है ।३२ जैन दर्शन में हिंसा-अहिंसा के प्रश्न को लेकर चार विकल्प किए गए हैं-(१) भाव-हिंसा हो, किन्तु द्रव्य-हिसा न हो, (२) द्रव्य-हिंसा हो, परन्तु भाव-हिंसा न हो, (३) द्रव्य-हिंसा भी हो और भाव-हिंसा भी हो (४) तथा द्रव्य-हिंसा भी न हो और भाव-हिंसा भी न हो। इन चार विकल्पों में प्रथम विकल्प अर्थात् द्रव्य हिंसा के अभाव में मात्र भाव-हिंसा (हिंसा का संकल्प ) को आचारांगकार हिंसा की कोटि में स्वीकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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