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________________ १७२ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन का अर्थ होता है-किसी को मारना या सताना। आचारांग में हिंसा के लिए प्रायः 'प्राणातिपात' शब्द का ही प्रयोग हुआ है । 'प्राणातिपात' का अर्थ है-प्राण + अतिपात अर्थात् प्राणी के प्राणों का अतिपात या नाश करना । परवर्ती जैन ग्रन्थों के समान 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा, 'हिंसा को स्पष्ट परिभाषा तो उपलब्ध नहीं होती किन्तु इन्हीं भावों से गभित व्याख्या उपलब्ध होती है। आचारांग में कहा गया है कि जो व्यक्ति इस जीवन के प्रति प्रमत्त है वह प्रमाद के वशीभूत होकर जीवों का हनन, छेदन-भेदन, ग्रामघात तथा प्राणघात करता है ।२५ अन्यत्र भी कहा गया है कि विषयातुर मनुष्य स्वयं जीवों की हिंसा - करते हैं, दूसरों से करवाते तथा हिंसा करने वाले का समर्थन करते हैं ।२। इससे यह फलित होता है कि आचारांग के अनुसार प्रमाद-युक्त होकर प्राणियों का हनन एवं छेदन-भेदन करना हिंसा है। उपर्युक्त परिभाषा से यह स्पष्टः समझा जा सकता है कि केवल किसी का प्राण-वध करना ही हिंसा नहीं है अपितु हिंसा का संकल्प भी हिंसा है। हिंसा में सर्वप्रथम मन का व्यापार 'संकल्प' होता है फिर वचन और काया का । प्रमादी व्यक्ति के मन में पहले हिंसा की भावना उत्पन्न होती है, फिर वह उसे कार्य रूप में परिणित करता है। इस प्रकार आचारांग के अनुसार विषय-कषाय या प्रमाद के वशीभूत होकर जो प्राण-वध किया जाता है, वही हिंसा का वास्तविक लक्षण है । इतना ही नहीं, कषाय या प्रमाद स्वयं भी हिंसा है। परवर्ती जैन ग्रन्थकारों ने कषाय या प्रमाद भाव को स्व-हिंसा या भाव-हिंसा और प्राण-वध को द्रव्य-हिंसा कहा है । कषाय या प्रमाद मानसिक हिंसा है और प्राणघात कायिक हिंसा। आचारांग हिंसा के उक्त दोनों रूपों को स्वीकार करता है। हिंसा के रूप-द्रव्य और भाव : सामान्यतः आचाराङ्ग में द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा की स्पष्ट व्याख्या या प्ररूपण नहीं है, किन्तु उसमें हिंसा और अहिंसा सम्बन्धी जो विशद चर्चाएँ हैं उनसे भी हिंसा का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। आचाराङ्ग में साधक को कृत कारित एवं अनुमोदित तथा मनसा, वाचा और कर्मणा किसी भी रूप में जीव की हिंसा करने का निषेध है ।२७ इससे स्पष्ट है कि आचारांग के अनुसार मानसिक हिंसा अथवा कषाय एवं प्रमाद ही भाव-हिंसा और कायिक हिंसा हो द्रव्य-हिंसा है। जैसे हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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