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________________ आचाराङ्ग का मुक्तिमार्ग : १५१ को 'निक्खितदंडाणं ' समाधि को 'समाहियाणं' और प्रज्ञा को 'पण्णाणमंताणं' से तुलनीय माना जा सकता है। गीता में भी ज्ञान, भक्ति (श्रद्धा) और कर्म के रूप में त्रिविध साधना - मार्ग का वर्णन हुआ है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष माने गए हैंज्ञान, अनुभूति और संकल्प । चेतना के इन तीनों ( ज्ञान-भाव ओर संकल्प ) पक्षों का अनन्त ज्ञान-दर्शन, अनन्त सौख्य ( आनन्द ) और अनन्तवीर्य ( अनन्त शक्ति ) के रूप में पूर्ण विकास के लिए आचारांग में त्रिविध मुक्ति मार्ग की साधना का विधान है । इसके अतिरिक्त भी आचारांग में 'एस मग्गो आरिएहि पवेइए' 'उट्ठिए णो पमायए' में अप्रमाद को मार्ग कहा गया है तो अन्यत्र 'वयं एएहिं कज्जेहिं दण्ड समारम्भेज्जा णे वण्णेहिं एएहिं कज्जेहिं दण्डसमारम्भावेज्जा णेवण्णेहिं एएहि कज्जेहिं दण्डसमारम्भन्तं समणु समग्गे आरिएहि पवेइए' के द्वारा 'दण्डसमारम्भ' से वित या 'अहिंसा' को मार्ग कहा है । कहीं 'परिग्गहाओ अप्पाण मवसक्केज्जा एस मग्गे आरिएहि पवेइए' कह कर अनासक्ति ( अमूर्च्छा ) या अपरिग्रह को मोक्षमार्ग कहा है तो कहीं 'अरइं आउट्टे से मेहावी खर्णसि मुक्के' कहकर अरति के निवारण या चैतसिक अनुद्विग्नता को, और 'विमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, 'लोभमलोभेण दुगंछमाणे लद्धे कामे णाभिगाहई' में अलोभ ( संतोष ) को 'एसमग्गे आरिएहि पवेइए' अर्थात् आर्यों द्वारा प्रतिपादित मोक्ष मार्ग कहा है । सामान्यतया मुक्ति के दो साधन हैं- 'ज्ञान - क्रियाभ्यां मोक्षः' ज्ञान और क्रिया से मोक्ष प्राप्त होता है । सूत्रकृतांग में भो 'अहिंसु विज्जा चरणं पमोक्खो' विद्या और आचरण को मोक्ष का साधन कहा गया है । आचारांग में यह निर्देश है कि कुछ लोग सम्पन्न कुल में जन्म लेकर भी यदि रूप में आसक्त हो जाते हैं तो उन्हें मोक्ष नहीं मिलता है ।" आचारांग में यह भी निर्देश मिलता है कि 'जे अणण्ण दंसी से अणण्णारामी' - जो यथार्थ द्रष्टा या आत्मद्रष्टा होता है वह जिनोक्त सिद्धान्त अथवा जिनाज्ञा के विपरीत आचरण नहीं करता अर्थात्, मोक्ष मार्ग से विपरीत आचरण नहीं करता । इस सूत्र में 'अणण्णदंसी' के द्वारा सम्यग्दर्शन और 'अणणारामी' शब्द के द्वारा सम्यग् चारित्र का स्पष्ट उल्लेख है । परन्तु यहाँ स्मरणीय है कि 'अणण्णदंसी' शब्द में ज्ञान है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं रहता । इसीलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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