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________________ नैतिकता को मौलिक समस्याएँ और आचारांग : १४५ आचारांग में, एक स्थान पर चित्त को काम-वासना से मुक्त करने के लिए तीन उपाय बताये गये हैं- लोक दर्शन, अनुपरिवर्तन दर्शन और संधि दर्शन । सूत्रकार का कथन है कि दीर्घदर्शी पुरुष लोकदर्शी होता है। वह लोक के अधोभाग, ऊर्ध्वभाग और तिरछे भाग को जानता-देखता है। वह यह देखता है कि काम-भोगों में आसक्त पुरुष अनुपरिवर्तन कर रहा है या संसार में काम-भोगों के पीछे चक्कर काट रहा है । वह यह भी जानता है कि यह मनुष्य जन्म आत्मशक्ति-जागृत करने का स्वर्णिम अवसर है। इस प्रकार वह लोक के यथार्थ स्वरूप, परिभ्रमण के कारणों तथा मरणधर्मा मनुष्य के शरीर की संधि को जानकर कामासक्ति से मुक्त हो जाता है ।७१ उपर्युक्त सूत्र में बताया गया है कि काम-भोगों से वही पुरुष बच सकता है जो दीर्घदर्शी होता है। वह यह सम्यक् रूप से जान ( देख) लेता है कि लोक के तीनों क्षेत्र अर्थात् समूचा संसार काम-वासना से पीड़ित है और यही संसार-परिभ्रमण का मूल कारण है। अतः विषयासक्ति रूप आवर्त का निरीक्षण कर ज्ञानी पुरुष उससे विरत हो जाए।१७२ इस प्रकार आचारांग के अनुसार मन की गहराइयों में उतरकर सजग या अप्रमत्तचेता बनने से अशुभ-वृत्तियां क्षीण हो जाती हैं, गाठे खुल जाती हैं और मन निर्मल एवं पवित्र बन जाता है। कामासक्ति जानना-देखना ही मानसिक पवित्रता को बनाये रखने का अर्थात् आसक्ति-त्याग का वास्तविक उपाय है। सन्दर्भ-सूची अध्याय ५ १. आचारांग, १/३/३. २. वही, १/६/३. ३. वही, १/२/५, १/८/३. ४. दशवैकालिक २/१०. ५. धम्मपद, २५/१०. ६. आचा० नियुक्ति, १८९. ७. अभि० राजे० को०, खण्ड ३, पृ० ३९५. ८. आचारांग शीलांक टी०, पत्रांक १५४. ९. वही, पत्रांक, १५४. १०. आचारांग, १/२/१. ११. दशवकालिक, ८/४०. १२. स्थानांग, २/२. १३. प्रशमरतिप्रकरण, अधि० २/३१-३२. १४. आचारांग, १/४/३. १५, वही, १/४/३. १६. वही, १/३/४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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