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________________ १४४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन क्योंकि हमारे बन्धन-या मुक्ति का आधार आन्तरिक मनोवृत्तियां ही हैं । ब्रह्मबिन्दूपनिषद्,६४ तेजोबिन्दूपनिषद्१६५ एवं मैत्रायणी आरण्यक में भी यही कहा गया है कि मन हो बन्धन और मुक्ति का कारण है।१६६ अतः शुद्ध अध्यात्म ( मन ) का अन्वेषण करना चाहिए।१६७ मन की साधना ही सच्ची साधना है। आचारांग में कहा है कि जो मन के यथार्थ स्वरूप को जानता है और उसे अपवित्र नहीं होने देता, वही निर्ग्रन्थ है।१६८ उसकी ग्रंथियाँ खल जाती हैं ।१६९ आचारांग में अनेक स्थलों पर 'ग्रन्थ', 'ग्रंथि' या 'निर्ग्रन्थ' शब्दों का प्रयोग हआ है जो एक विशिष्ट अर्थ का द्योतक है। आचारांग, उत्तराध्ययन व स्थानांग में आत्मा को बांधने वाले विषय-कषाय को 'गन्थ' या 'गंथि' कहा गया है। जो गांठ हमें बांधती हैं, वे विषय-कषाय एवं राग-द्वेष की गाठे हैं, मानसिक बन्धन ही वास्तविक बन्धन है। आधुनिक मनोविज्ञान में भी इन ग्रंथियों का बड़ा महत्त्व है। इनसे मुक्त होना ही आचारांग की साधना का मूल लक्ष्य है, किन्तु मन को काम-वासना, आसक्ति की गांठ से मुक्त कैसे किया जाए? उसे पवित्र कैसे किया जाय ? और उस पर विजय कैसे पायी जाय ? आचारांग में मन शुद्धि के लिए जो वैज्ञानिक पद्धति अपनायी गयी है, उसकी प्रामाणिकता आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सिद्ध हो चुकी है। आचारांग के अनुसार मन को पवित्र रखने के लिए आसक्ति को जानना-देखना आवश्यक है। सूत्रकार का कथन है कि हे साधक । ऊपर स्रोत है, नीचे स्रोत है और मध्य में भी स्रोत या विषयासक्ति के स्थान हैं अर्थात् तीनों दिशाओं में कर्म-बन्धन के हेतु हैं । इनके द्वारा मनुष्य आसक्त होता है । उसे तुम देखो । १७० आगे कहा है कि इन विषय कषायों से निवृत्त होने के लिए तुम आसक्ति को देखो। आचारांग के अनुसार 'देखना' साधक जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है। जब साधक देखता है, तब वह सोचता नहीं है और जब सोचता है तब देखता नहीं है। इन वृत्तियों या स्रोतों को रोकने का पहला और अन्तिम साधन है- देखना, द्रष्टाभाव । आसक्ति को तोड़ने का सर्वोत्तम एवं सशक्त उपाय है- द्रष्टा या साक्षी भाव । इन दुष्प्रवृत्तियों के निराकरण का उनके प्रति जागरूक बनने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है । इन्हें जानने और देखने की प्रक्रिया से आसक्ति टूटती है, मोहममत्व की पकड़ कम होती है। इस विषय-विराग के पथ पर चलने के लिए साधक को सजगप्रहरी की भांति सचेष्ट रहना पड़ता है। जागरूक या ज्ञाता-द्रष्टा पुरुष ही इन ग्रंथियों को तोड़ सकता है। इस सन्दर्भ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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