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________________ १४० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन की हीन-मनोवृत्तियों का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार कहते हैं कि कुछ साधक ऐसे हैं जो प्रज्ञावान एवं महा-पराक्रमी गुरुजनों द्वारा प्रशिक्षित किए जाने पर ज्ञान से गर्वित हो जाते हैं। उनसे ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उपशम भाव का त्याग कर कठोरता अपना लेते हैं । ब्रह्मचर्य (गुरुकूलवास ) में रहकर भी उनकी आज्ञा की अवहेलना करते हैं। कुछ साधक गुरुजनों द्वारा समझाए जाने पर ( चारित्रभ्रष्टता के दुष्परिणामों को बतलाए जाने पर) हम संयमी जीवन जीएँगे इस संकल्प से दीक्षित होकर भी संकल्प के प्रति सच्चे नहीं रह पाते । मानादि कषाय से दग्ध, और काम-भोगों में आसक्त हो जाते हैं, तथा ऋद्धि, रस आदि तीनों गारवों में अत्यासक्त वीतरागप्रणीत समाधि का सेवन नहीं करते । गुरुजनों द्वारा शिक्षा दिये जाने पर भी उल्टे उन्हीं को कठोर वचन बोलते हैं । १३८ वे दूसरे चारित्र-सम्पन्न मुनियों को भी बदनाम करते हैं । १३९ कुछ संयम से निवृत्त होते हुए आचार-गोचर की व्याख्या करते हैं और कुछ ज्ञान-भ्रष्ट एवं दर्शन-ध्वंसी दोनों होते हैं । १४० कई साधक ( आचार्यादि के प्रति ) नत होते हुए भी संयमी जीवन को ध्वस्त कर देते हैं, कुछ साधक ऐसे होते हैं जिनसे परीषहों का कष्ट सहा नहीं जाता है तो केवल सुखपूर्ण या असंयममय जीवन जीने के लिए संयम छोड़ देते हैं। ऐसे विषयासक्त साधक बार-बार जन्म-मरण के चक्र में घूमते रहते हैं । मोक्षमार्ग प्रकाशक में भी आचारांग के समान ही दमन के दुष्परिणामों का वर्णन किया गया है ।१४१ ऐसे संयम से पतित होने वाले साधक और भी अनेक तरह से मध्यस्थ मुनियों की अवहेलना करते हैं । अतः हे मेधावी ! तुम्हें धर्म को जानना चाहिए । १४२ संयम धर्म से पतित होने वाले गारव आदि दोनों से ग्रस्त साधक को अनुशासित करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि हे अधर्मार्थो ! तू अर्हत् द्वारा प्रतिपादित कठोर धर्म की आज्ञा का अतिक्रमण कर रहा है । ऐसे साधक को विषण्ण एवं हिंसक कहा है । यह भी कहा है कि कुछेक मुनि सम्बन्धित जन को छोड़कर विरक्ति-भाव दिखाते हुए वीर-वृत्ति से प्रवजित होते हैं । अहिंसक, सुव्रती एवं दान्त बन जाते हैं । सूत्रकार कहते हैं कि हे साधक ! सिंह की भाँति उठकर फिर दीन एवं पतित बनकर गिरते हुए उन साधकों को तू देख । वे इन्द्रिय-विषय से पीड़ित, कायर मनुष्य व्रत-विध्वंसक बन जाते हैं। उनमें से कुछ मुनियों को पापरूप (निन्दनोंय ) प्रसिद्धि होती है कि 'यह श्रमण बनकर विभ्रान्त हो चुका है' (श्रमण-धर्म से पतित हो गया है) चारित्र-सम्पन्न साधुओं के बीच शिथिलाचारी, अविनयी, अत्यागी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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