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________________ नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : १३९ त्यागी दीखता है, मुनिवेश (द्रव्य-लिंग ) धारण किए हुए है परन्तु वस्तुतः वह प्रमादी है, गृहवासी हो है इसलिए कि उसका मन सदा विषयों के चिन्तन में डूबा रहता है। मूलाचार३५ और गीता१३६ में भी ऐसे ही विचार हैं । तात्पर्य यह है कि बाह्यतः मुनिवेश का परित्याग नहीं करने पर भी उसकी मनोभावना साधुता से, संयम से विमुख हो चुकी है । प्रत्यक्ष में शान्त और संयमी होकर भी भीतर में अशान्त एवं वासनाओं की ज्वालाओं से उद्दीप्त बना रहता है, तथा उन अवसरों की खोज करता है, जब लोग या समाज-दृष्टि से अपने आपको बचाकर उन निम्न वृत्तियों के छद्म रूप में खुलकर परितृप्ति का मौका मिल जाय । कुछ साधक ऐसे होते हैं जो संयम ग्रहण कर लेते हैं। किन्तु अन्तर्मन में संयम-निष्ठा न होने से, राग-भाव न मिटने से प्रतिज्ञा से विचलित हो जाते हैं। वे मुनिवेश भी नहीं छोड़ते हैं और विषयों का भो आसेवन करते हैं। आचारांगकार कहते हैं कि विवेकशून्य एवं मोह से आवृत कई साधक परीषहों ( कष्टों ) के उपस्थित होने पर वीतराग आज्ञा के विपरीत आचरण करके संयम से च्युत हो जाते हैं और कुछ साधक 'हम अपरिग्रही बनेंगे' ऐसा संकल्प कर संयम-मार्ग ग्रहण करते हैं, अर्थात् दोक्षा लेकर भी प्राप्त काम-भोगों का आसेवन करते हैं, उनमें फंस जाते हैं। वे आज्ञा विरुद्ध मुनि वेश को लजाने वाले विषय-भोगों की प्राप्ति के उपायों की खोज में लगे रहते हैं। इस प्रकार वे बार-बार मोहरूपी कीचड़ में आसक्त होकर न तो इधर के रहते हैं और न उधर के । अर्थात् न गृहवासी हो सकते हैं और न श्रमणत्व-जीवन का आनन्द ले सकते हैं । '३७ यह दुष्परिणाम अन्तरंग-विरक्ति के अभाव के कारण ___ अंतरंग में विवेक-विरागता स्फुरित हुए बिना विषय-वासना मिटे बिना केवल भावावेश में आकर संयम या श्रमण चारित्र स्वीकार कर लेने से विरागता नहीं आती। ऐसी स्थिति में बाद में जीवन भर उनका निर्वाह करना बड़ा कठिन हो जाता है और स्वीकृत-संकल्पों से, संयमी जोवन से पतन हो जाता है यानी दुराचार पनपता है और विकृतियाँ आ जाती हैं। आगे इस तथ्य को समुचित रूप से अभिव्यक्त किया गया है कि बिना अपनी भूमिका एवं योग्यता (पात्रता) को जाने भावुकता एवं उपशम भाव के आधार पर आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाने से साधक पुनः किस प्रकार फिसल जाता है। श्रुतादि के मद में उन्मत्त बने श्रमण की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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