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________________ १२४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन नहीं है तथापि हास्य, रति आदि का यत्र-तत्र बिखरे रूपों में वर्णन अवश्य मिलता है । Tera की उत्पत्ति का कारण इन्द्रिय विषय है । १० इष्ट विषय के प्रति राग और अनिष्ट विषय के प्रति द्वेष की भावना जागृत होती है । राग-द्वेष पैदा होने से कषाय की मात्रा बढ़ती है और वृद्धिगत कषाय हो जन्म-मरण या संसार के मूल को सींचती हैं । ११ स्थानांग १२ और प्रशमरति प्रकरण में भी कहा गया है कि राग, माया और लोभवृत्ति को जन्म देता है और द्वेष, क्रोध और मान को। ये राग और द्वेष ही कषायों के जनक हैं । सम्पूर्ण प्राणिजगत् कषायों से लिप्त है और इनके परिणाम अनादिकाल से भोगता चला आ रहा है । अतः साधक को इनसे निवृत्त होने का उपदेश दिया गया है । आचारांग में कहा गया है 'इस जीवन की क्षणिकता को जानकर साधक क्रोध आदि कषायों का परित्याग करे । वर्तमान अथवा भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुःखों के कारण क्रोधादि कषाय हैं । क्रोधादि कषाय के कारण हो जीव नरकादि स्थानों में उत्पन्न दुःखों का संवेदन करता है । हे साधक ! तू देख ! क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर प्राणी सांसारिक दुःखों से व्याकुल होकर परिभ्रमण कर रहा है । १४ इसलिए हे साधक ! तू विषय कषाय से प्रज्वलित मत हो । कषायों को पारस्परिक सापेक्षता आचारांग के प्रथम अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक कषाय से सम्बन्धित है । इसमें क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आत्मा को कलुषित करने वाली विभिन्न चित्तवृत्तियों के परित्याग पर विशेष बल दिया गया है । जो एक कषाय पर विजय प्राप्त कर लेता है वह शेष कषायों पर भी विजय कर लेता है और जो दूसरे अनेक कषायों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह एक पर भी विजय प्राप्त कर लेता है । १६ आचारांग का यह कथन मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचायक है। आगे कहा गया है कि एक मोह कर्म को क्षय करता हुआ साधक बहुत से कर्मों का क्षय कर देता है और बहुत से कर्मों का क्षय करता हुआ साधक एक अर्थात् मोहकर्म का क्षय कर देता है । यह भी कहा गया है कि जो एक को जानता है, वह सबको जान लेता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है । ऐसी बात विशेषावश्यकभाष्य में भी कही गई है। १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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