SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंपयुग सिलसिले में एक बात और रह जाती है, वह यह है कि यदि नयसेन ने 'धर्मामृत' को अपनी मुनि अवस्था में मुळगुन्द में रचा है, तो फिर मुळगुन्द को कवि का जन्मस्थल मानना ठीक नहीं होगा, क्योंकि दिगम्बर मुनि किसी भी स्थान पर दीर्घकाल तक नहीं ठहर सकते हैं। वे सदैव विहार करते रहते हैं । केवल चातुर्मास में शास्त्रोक्तरीत्या चातुर्मास की समाप्ति तक एक स्थान पर ठहरते हैं। ऐसी अवस्था में मुनि नयसेन मुळगुन्द के निवासी नहीं, प्रवासी ही रहे होंगे। __धर्मामृत की रचना इन्होंने मुळगुन्द में ही की थी अर्थात् उपयुक्त ग्रंथ के समाप्ति काल में नयसेन मुळगुन्द में अवश्य रहे । नयसेन के पूर्व ही कन्नड साहित्य में कथा-साहित्य का जन्म हो चुका था, वड्डाराधना इसका प्रबल प्रमाण है। वड्डाराधना के बाद नयसेन के कालतक का दूसरा कोई इस प्रकार का कथाग्रंथ कन्नड साहित्य में अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इसी दृष्टि से जी० वेंकटसुब्बय्य का यह कथन ठीक है कि जनसामान्य की साहित्यरचना में नयसेन ही पथप्रदर्शक रहा। इसमें सन्देह नहीं है कि नयसेन इस बात को अच्छी तरह जानता था कि धर्म के प्रसार-प्रचार में ऐसी कथाएं अत्यधिक उपयोगी होती हैं, क्योंकि प्रत्येक मानव जन्म से ही कथा सुनने का आदी होता है। बूढ़ी नानी की विचित्र कथाओं से ही बच्चों का विद्याभ्यास आरंभ होता है । बच्चों को कथा सुनाने में नानी को भी कम दिलचस्पी नहीं होती। इस प्रकार जैसे-जैसे कथा सुनने और सुनाने की अभिरुचि बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही कथा साहित्य का भण्डार भरता जाता है। कन्नड में कथा साहित्य का जन्म कब हआ यह कहना कठिन है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कन्नड के अन्यान्य अंगों की तरह कथा साहित्य के जन्मदाता भी जैन कवि ही हैं। कन्नड कथा साहित्य के आज तक के उपलब्ध ग्रंथों में जैन ग्रंथ वड्डाराधना ही सबसे प्राचीन है। __ जी. वेंकटसुब्बय्य के इस अभिप्राय को मैं भी स्वीकार करता हूँ कि प्रारंभ में कन्नड कवियों ने पुराणों में संस्कृत महाकाव्यों की ही शैली को अपनाकर अपने ग्रंथों को जनसाधारण की अपेक्षा विद्वत्भोग्य ही अधिक बनाया है। दीर्घ-समास, श्लेष आदि क्लिष्ट अलंकार, अष्टादश वर्णन, कठिन भाषा और धर्म को प्रतिपादित करनेवाली प्रौढ़ शैली आदि के कारण ये पुराण सामान्य जनता की जिज्ञासा को तृप्त नहीं कर सके। इस विचार को स्वीकार करने में कवियों को पर्याप्त समय लग गया। प्रायः कवियों ने १२वीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy