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________________ ४२ कन्नड जैन साहित्य का इतिहास कि उक्त पद्य के उत्तरार्द्ध में प्रयुक्त नन्दन संवत्सर १०३७ में न आकर १०३४ में आता है। इससे वह अनुमान करते हैं कि 'प्रायः जैनमतावलंबी गिरि शब्द से ४ का अंक लेते हैं और यदि मेरा यह अनुमान ठीक है तो धर्मामृत ई० सन् १०११ में रचा गया था।' परन्तु मेरी जानकारी में गिरि शब्द से ४ का अर्थ लेना जैनधर्म को भी मान्य नहीं है। इसलिए उपयुक्त अंतर का कारण और भी कुछ होना चाहिए । इस कारण को ढूढना परमावश्यक है । आश्वास के आद्यन्त के पद्यों से मालूम होता है कि नयसेन को 'सुकविनिकरपिकमाकन्द' और 'सुकविजनमनःपद्मिनीराजहंस' की उपाधियां प्राप्त थीं। इसके अतिरिक्त आश्वासों के अंत के गधों में इन्होंने अपने को दिगम्बरदास नूनकविताविलास भी बतलाया है ( कर्णाटक कविचरिते, प्रथम भाग, पृष्ठ २२८)। स्व. डा० शामशास्त्री और जी० वेंकटसुब्बय्य की राय से 'वात्सल्य रत्नाकर' और नूनकविताविलास भी कवि की उपाधियां थीं ( नयसेन, पृष्ठ ६ और धर्मामृत का उत्तरार्द्ध)। वेंकटसुब्बय्य का यह भी कहना है कि 'नयसेन ने अपने वंश, माता-पिता, आश्रयदाता अदि के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा है। इसी प्रकार इन्होंने अपने गुरु का स्मरण तो अवश्य किया है, परन्तु स्पष्ट नाम लेकर नहीं, अपितु विद्य चूड़ामणि, विद्यचक्रेश्वर, विद्यलक्ष्मीपति और विद्यचक्राधिप आदि उपाधिसूचक शब्दों के द्वारा ही किया' है ( कविचरिते, प्रथम भाग, पृष्ठ २२८ )। कवि ने धर्मामृत में अपने वंश, माता-पिता, आश्रयदाता आदि का नाम इसलिए नहीं लिखा होगा कि धर्मामृत के रचनाकाल के समय वह मुनि हो गया था। क्योंकि इन्होंने अपनी कृति में नयसेनदेव और नयसेनमुनीन्द्र आदि शब्दों के द्वारा ही अपने को स्पष्ट मुनि सूचित किया है। वस्तुतः नयसेन मुनियों का नाम है, न कि गृहस्थों का। मुनि अवस्था में कवि अपने पूर्ववंश माता-पिता, आश्रयदाता आदि के बारे में कुछ भी नहीं लिख सकता था। यद्यपि अपनी गुरुपरम्परा के विषय में वह बहुत कुछ लिख सकता था। इनके इस तरह मौन रहने का कारण अज्ञात है। फिर भी धर्मामृत के 'गुरु विद्याब्धिनरेन्द्रसेनगुरुपं" नामक पद्य के द्वारा 'विद्यचक्रेश्वर' मुनि नरेन्द्रसेन को कवि ने अपना गुरु स्पष्ट सूचित किया है । नाम के आधार पर नरेन्द्रसेन तथा नयसेन ये दोनों ही गुरु-शिष्य दिगम्बराम्नाय के उसी सुप्रसिद्ध सेनगण के मुनि सिद्ध होते हैं, जिसमें प्रातः स्मरणीय आचार्य वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्रादि महान् आचार्य हो चुके हैं। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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