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________________ विशेषावश्यकभाष्य १३१ व्यंजनावग्रह श्रोत्रादि चार प्रकार का है। अर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा के श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियाँ और मन-इन छः से उत्पन्न होने के कारण प्रत्येक के छः भेद होते हैं। इस प्रकार व्यंजनावग्रह के ४ तथा अर्थावग्रहादि के २४ कुल २८ भेद हुए । ये श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के भेद हैं । कुछ लोग अवग्रह के दो भेदों को अलग न गिनाकर अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा-इन चारों के छः-छः भेद करके श्रुतनिश्रित मति के २४ भेद करते हैं और उनमें अश्रुतनिश्रित मति के औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कामिकी और पारिणामिकी इन चार भेदों को मिलाकर पूरे मतिज्ञान के २८ भेद करते हैं।' भाष्यकार ने इस मत का खण्डन किया है। उपयुक्त २८ प्रकार के श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, निश्चित और ध्रुव-ये छः तथा इनसे विपरीत छः और इस प्रकार प्रत्येक के १२ भेद होते हैं । इस प्रकार श्रुतनिश्रित मति के २८x१२ = ३३६ भेद होते हैं। इसके बाद आचार्य ने संशय ज्ञान है या अज्ञान, इसकी चर्चा करते हुए सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। अवग्रहादि की कालमर्यादा इस प्रकार है : अवग्रह एक समयपर्यन्त रहता है, ईहा और अपाय अन्तमुहूर्त तक रहते हैं, धारणा अन्तर्मुहूर्त, संख्येयकाल तथा असंख्येयकाल तक रहती है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि केवल नैश्चयिक अर्थावग्रह एक समयपर्यन्त रहता है। वासनारूप धारणा को छोड़कर शेष व्यंजनावग्रह, एक समयपर्यन्त रहता है। वासनारूप धारणा को छोड़कर शेष व्यंजनावग्रह, व्यावहारिक अर्थावग्रह, ईहा आदि प्रत्येक का काल अन्तर्महर्त है। वासनारूप धारणा ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की विशिष्टता के कारण संख्येय अथवा असंख्येय कालपर्यन्त रहती है। इसके बाद भाष्यकार ने इन्द्रियों की प्राप्तकारिता और अप्राप्तकारिता के सामोप्य, दूरी, काल आदि से सम्बन्ध रखने वाली बातों पर प्रकाश डाला है।' इस प्रसंग पर भाषा, शरीर, समुद्धात आदि विषयों का भी विस्तृत परिचय दिया गया है। ____ मतिज्ञान ज्ञेयभेद से चार प्रकार का है। सामान्य प्रकार से मतिज्ञानोपयुक्त जीव द्रव्यादि चारों प्रकारों को जानता है । ये चार प्रकार हैं : द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । नियुक्तिकार का अनुसरण करते हुए आगे की कुछ गाथाओं में आभिनिबोधिक ज्ञान का सत्पदप्ररूपणता, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्प-बहुत्व-इन द्वारों से विचार किया है । प्रसंगवश व्यवहारवाद और निश्चयवाद के पारस्परिक मतभेद का दिग्दर्शन कराते हुए दोनों के स्यावाद-सम्मत सामंजस्य का निरूपण किया गया है।" १. गा० ३००-२. २. गा० ३०७. ३. गा० ३०८-३३२. ४. गा० ३३३-४ ५. गा० ३४०-३९५. ६. गा० ४०२-४. ७. गा० ४०६-४४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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