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________________ १३० जैन साहित्य का बृहद इतिहास उसी का काम करती है और इसप्रकार श्रुतज्ञान का कारण है, न कि मति भेद का अधिकार है । का ।' यहाँ तक मति श्रुत के आभिनिबोधिक ज्ञान : अभिनिबधिक ज्ञान के भेदों की ओर निर्देश करते हुए आगे कहा गया है कि इन्द्रिय मनोनिमित्त जो आभिनिबोधिक ज्ञान है उसके दो भेद हैं : श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । इन दोनों के पुनः चार-चार भेद होते हैं : अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा । सामान्यरूप से अर्थ का अवग्रहण अवग्रह है, भेद की मागंणा करना ईहा है, उसका निश्चय अपाय है और उसकी अविच्युति धारणा है । जो लोग सामान्यविशेष के ग्रहण को अवग्रह कहते हैं उनका मत ठीक नहीं क्योंकि उसमें अनेक दोष हैं । कुछ लोग यह कहते हैं कि ईहा संशयमात्र है, यह ठीक नहीं, क्योंकि संशय तो अज्ञान है जबकि ईहा ज्ञान है । ऐसी स्थिति में ज्ञानरूप ईहा अज्ञानरूप संशय कैसे हो सकती है ? इसी प्रकार अपाय और धारणासम्बन्धी मतान्तरों का भी भाष्यकार ने खण्डन किया है । अवग्रह दो प्रकार का है : व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह | जिसमें अर्थ ( पदार्थ ) प्रकट होता है वह व्यंजनावग्रह है । उपकरणेन्द्रिय और शब्दादिरूप से परिणत द्रव्य का पारस्परिक सम्बन्ध व्यंजनावग्रह है । इसके चार भेद हैं : स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत । नयन और मन अप्राप्यकारी हैं अतः उनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता । जो लोग श्रोत्र और घ्राण को भी अप्राप्यकारी मानते हैं उनके मत का खण्डन करते हुए भाष्यकार ने यह सिद्ध किया है कि स्पर्शन और रसन की ही भांति घ्राण और श्रोत्र भी प्राप्त अर्थ का ही ग्रहण करते हैं । " इसी प्रकार नयन और मन की अप्राप्यकारिता का भी रोचक ढंग से समर्थन किया गया है । विशेष कर जहाँ स्वप्न का प्रसंग आता है वहाँ तो आचार्य ने प्रतिपादन की कुशलता एवं रोचकता का परिचय बहुत ही सुन्दर ढंग से दिया है | व्यंजनावग्रह के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के बाद अर्थावग्रह का व्याख्यान किया है, जिसमें अनेक शंकाओं का समाधान करते हुए व्यावहारिक एवं नैश्चयिक दृष्टि से अर्थावग्रह के विषय, समय आदि का निर्णय किया हैं । इसके बाद ईहा, अनय और धारण के स्वरूप की चर्चा की गई है । मविज्ञान के मुख्यरूप से दो भेद हैं : श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । श्रुतनिश्रित के अवग्रहादि चार भेद । अवग्रह के पुनः दो भेद हैं : व्यंजनावग्र ह और अर्थावग्रह १. गा० १७१-५. १९३-४. ५. गा० २०४-८. Jain Education International २. गा० १७७-१८०. ३. गा० १८१-२. ४. गा० ६. गा० २०९-२३६. ७. गा० २३७-२८८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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