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________________ भिक्षुणी-संघ का विकास एवं स्थिति : २१७ के यहाँ जाना पड़ता था। जैन संघ के इस नियम में परवर्ती काल में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बौद्ध संघ में भी भिक्षु-भिक्षुणियों को यद्यपि उपासकों के यहाँ से ही भोजन, वस्त्र आदि ग्रहण करने का विधान किया गया था, परन्तु प्रारम्भिक काल से ही हम इस नियम में परिवर्तन देखते हैं । बुद्ध ने स्वयं भिक्षु-भिक्षुणियों को निमन्त्रित भोज में जाने की अनुमति दी थी । कालान्तर में यह प्रक्रिया और विकसित हुई तथा भिक्षु-भिक्षुणियों के आहार आदि का प्रबन्ध भी विहारों में होने लगा। वस्त्र आदि भी एक साथ बड़ी मात्रा में प्राप्त होने लगे। इसके फलस्वरूप बौद्ध भिक्षुभिक्षुणियों का गृहस्थ उपासक तथा उपासिकाओं से सम्बन्ध दूर होता गया। इसके विपरीत जैन धर्म का परवर्ती काल में भी गहस्थों से सम्बन्ध अटूट बना रहा। परवर्ती काल के अभिलेखों से भी इसकी पूष्टि होती है। धारवाड़ से प्राप्त ९०३ ईस्वी के एक लेख में वैश्यजाति के एक पुत्र द्वारा मन्दिर बनवाकर भूमिदान देने का उल्लेख है।' कर्नाटक से प्राप्त १०६० ईस्वी के एक अन्य अभिलेख से स्पष्ट होता है कि निर्वद्य नामक एक गृहस्थ ने एक जिनालय खड़ा किया था तथा उसकी व्यवस्था के लिए समुचित प्रबन्ध किया था ।२ शक संवत् १११८ के हलेबीड अभिलेख से यह सूचना प्राप्त होती है कि शान्तिनाथ बसति के दान की रक्षा कोरडुकेरे के किसानों और गाँव के ६० कुटुम्बों ने की थी। जैनधर्म के श्रावक संघ के महत्त्वपूर्ण अंग थे। भिक्षु-समुदाय की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति का उत्तरदायित्त्व उन्हीं के ऊपर रहता था। इसी कारण जैन धर्म के भिक्षु-भिक्षुणी सांसारिक झंझटों से दूर रहे तथा धार्मिक नियमों का कठोरता से पालन कर सके। इसके विपरीत बौद्ध धर्म में उपासक वर्ग का इतना महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं था, धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के भिक्षु-भिक्षुणियों का उपासक-वर्ग से सम्पर्क टूटता गया। जैन धर्म को निरन्तरता तथा बौद्ध धर्म के ह्रास का यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण था। बौद्ध धर्म के विहारों के पतन १. जैन शिलालेख संग्रह, भाग द्वितीय, पृ० १५८ । २. वही, पृ० २३४ । ३. वही, पृ० २३०-२३१ । 4. "It is evident that the lay part of the community were not regarded as outsiders, as seems to have been the case in early Buddhism; their position was, from the beginning, well defined by religious duties and privilages; the bond which united them to the order of monks was an effective one.... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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