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________________ १८८ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ इसी प्रकार उपदेश देने का अधिकार केवल भिक्षु को था। नियमों के अनुसार कोई भिक्षुणी किसी भिक्षु को उपदेश नहीं दे सकती थी। लेकिन अपवादस्वरूप जैन भिक्षणी राजीमती द्वारा भिक्षु रथनेमि को उपदेश देने का अन्यतम उदाहरण मिलता है । रथनेमि की भोग लिप्सा की प्रवृत्ति को राजीमती ने कड़े शब्दों में फटकारा था। राजीमती के प्रतिबोधात्मक उपदेशों का ही यह परिणाम था कि रथनेमि की आँखे खुल गयीं और उन्होंने शेष जीवन शाश्वत सत्य की खोज में लगाया । इसी प्रकार भिक्षुणी ब्राह्मी एवं सून्दरी ने भी भिक्षु बाहुबलि को अहंकाररूपी हाथी से नीचे उतरने के लिए उपदेश दिया था, किन्तु इन अपवादों के अतिरिक्त और कोई भिक्षुणी उपदेशक के रूप में नहीं मिलती । इसकी पुष्टि हमें अभिलेखों से भी होती है। अभी तक प्राप्त किसी भी जैन अभिलेख में किसी भिक्षणी को उपदेशक के रूप में उल्लेख नहीं किया गया है जबकि हर जगह उपदेशक के रूप में भिक्षु का ही उल्लेख हुआ है । भिक्षुओं की शिष्याओं के रूप में भिक्षुणियों का उल्लेख सर्वत्र मिलता है, परन्तु एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जिसमें कि कोई भिक्षु किसी भिक्षुणी का शिष्य रहा हो (यद्यपि हरिभद्र ने अपने को याकिनीसुनू कहकर गौरवान्वित अनुभव किया है), जबकि भिक्षुणी की शिष्या के रूप में भिक्षुणी का उल्लेख मिलता है। मथुरा से प्राप्त एक अभिलेख में नन्दा और बलवर्मा की शिष्या के रूप मे अक्का का उल्लेख है ।२ जैन ग्रन्थों में भिक्ष भिक्षुणियों से सम्बन्धित नियमों का अनुशीलन करने से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन आगम ग्रन्थों यथा-आचारांग, स्थानांग आदि की अपेक्षा परवर्ती ग्रन्थों गच्छाचार, बहत्कल्पभाष्य आदि के रचना काल के समय में भिक्षणिओं के ऊपर भिक्षओं का और भी अधिक कठोर नियन्त्रण हो गया था। स्थानांग में कुछ विशेष परिस्थितयों में भिक्षु-भिक्षुणियों को परस्पर एक दूसरे की सहायता करने, सेवा करने तथा साथ रहने का भी विधान था, परन्तु गच्छाचार तथा बृहत्कल्पभाष्य के रचनाकाल तक इन सब पर कठोर नियन्त्रण लगा दिया गया। हम देखते हैं कि सौ वर्ष की दीक्षित भिक्षणी को सद्य:प्रवजित भिक्षु को वन्दन आदि करना आवश्यक माना गया तथा 'पुरुष १. उत्तराध्ययन, २२ वाँ अध्याय । 2. List of Brahmi Inscriptions, 48. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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