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________________ भिक्षु-भिक्षुणी सम्बन्ध एवं संघ में भिक्षुणी की स्थिति : १८७. उसे दूर करने में समर्थ न हो, तो उसे कोई भी भिक्षु निकाल सकता था', ऐसी स्थिति में एक दूसरे के शरीर का स्पर्श उन्हें दण्ड का पात्र नहीं बनाता था । यहाँ तक कि भिक्षु-भिक्षुणी रूग्णावस्था में एक दूसरे के मूत्र का औषधि के रूप में प्रयोग कर सकते थे, यद्यपि सामान्य रूप से उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं थी। __ उपर्यक्त जिन विशेष परिस्थितयों में भिक्षु-भिक्षुणियों को एक दूसरे की सहायता करने का निर्देश दिया गया था-वे अपवाद मार्ग थे, संघ के मूल नियम नहीं। इन अपवाद मार्गों का अवलम्बन इसलिए ग्रहण किया जाता था, ताकि भिक्षु-भिक्षुणियों को अनुचित कष्ट न उठाना पड़े और संघ की मर्यादा भी अक्षुण्ण बनी रहे। - भिक्षु-भिक्षुणियों के मध्य नियमों की समानताओं एवं सैद्धान्तिक उच्चादर्शों के बावजूद भी यह स्पष्ट है कि भिक्ष की तुलना में भिक्षणी की स्थिति निम्न थी। संघ के नियमों के अनुसार ३ वर्ष का दीक्षित भिक्ष ३० वर्ष की दीक्षित भिक्षणी का उपाध्याय बन सकता था तथा ५ वर्ष का दीक्षित भिक्ष ६० वर्ष की दीक्षित भिक्षुणी का आचार्य बन सकता था । इसके अतिरिक्त संघ में आचार्य एवं उपाध्याय के पद केवल भिक्षुओं के लिए निर्धारित थे और कितनी भी योग्य भिक्षुणी क्यों न हो, वह इन उच्च पदों को धारण नहीं कर सकती थी। छेदसूत्रों से यह स्पष्ट होता है कि कालान्तर में जैन संघ में "पुरुषज्येष्ठधर्म" के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया, जिसके अनुसार भिक्षु भिक्षणी से प्रत्येक अवस्था में ज्येष्ठ माना गया।४ १०० वर्ष की दीक्षित भिक्षुणी को भी सद्यः प्रव्रजित भिक्षु को वन्दना करने का विधान था।" १. बृहत्कल्पसूत्र, ६/३-६. २. वही, ५/४६. ३. व्यवहारसूत्र, ७/१९-२०. ४. “सव्वाहि संजतीहिं, कितीकम्मं संजताण कायन्वं पुरिसुत्तरितो धम्मो, सवजिणाणं पि तित्थम्मि" -बृहत्कल्पभाष्य, भाग षष्ठ, ६३९९. ५. "अप्यार्यिकाश्चिरदीक्षिता अपि तद्दिनदीक्षितमपि साधु वन्दन्ते, कृतिकर्म च यथारानिकं तेऽपि कुर्वन्ति"-वही, भाग षष्ठ, ६३६१-टीका. "वरिससय दिक्खिआए अज्जाए अज्जादिक्खिओ साहू अभिगमण वंदण नमसंणेण विणएण सो पुज्जो". -कल्पसूत्र की कल्पलता टीका में उद्धृत गाथा, पृ० २.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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