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________________ १६२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ :- १५४ ६९ . जो भिक्षुणी दूसरी भिक्षुणी पर निर्मूल संघादिसेस का आरोप लगाये। १५५ जो भिक्षुणी दूसरी भिक्षुणी को दिक् (अफासु) करे। १५६ जो भिक्षुणी कलहकारी भिक्षुणी के पास खड़ी होकर उसकी बात सुने । १५७ जो भिक्षुणी धार्मिक कार्यों के लिए अपनी सहमति देकर पीछे हट जाये । जो भिक्षुणी संघ के निर्णय के समय अपनी सहमति (छंद) दिये बिना ही चली जाये । जो भिक्षुणी संघ द्वारा चीवर प्रदान करने के समय विघ्न डाले। जो भिक्षुणी संघ के लिए प्राप्त वस्तु को अपने उपयोग में लाये । जो भिक्षुणी बहुमूल्य वस्तु (रतनं वा रतनसम्मत वा) को इधर से उधर हटाये ।। जो भिक्षुणी सूचीघर (सूई रखने की फोंपकी) को तोड़े। १६३ ६४, ११३ जो भिक्षुणी चारपाई (मंच) या तख्त (पीठ) को नाप (निचले पाद को छोड़ बुद्ध के अंगुल से आठ अंगुल) से अधिक का बनवाये । १६४ जो भिक्षुणी चारपाई या तख्त में रुई (तूलोनद्ध) भरवाये । १६५ जो भिक्षुणी कण्डुपटिच्छादन नामक वस्त्र को उचित नाप का न बनवाये । १६६ जो भिक्षुणी बुद्ध के चीवर के बराबर या उससे बड़ा चीवर बनवाये । थेरवादी निकाय में भिक्षुणियों के १६६ पाचित्तिय धर्म (नियम) हैं। महासांघिक निकाय में यह संख्या १४१ है। यहाँ इसे "शुद्ध पाचत्तिक धर्म'१ कहा गया है। अधिकांश पाचित्तिय नियम प्रायः दोनों में समान हैं। भिक्षुणी विनय का २२वाँ २४वाँ, ६२वाँ तथा ११५वाँ पाचत्तिक नियम १. भिक्षुणी विनय, ६१८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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