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________________ संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १५९ १०४ ११२ १७ ११३ जो भिक्षुणी अन-उपसम्पन्ना को दिव्यशक्ति के बारे में कहे। जो भिक्षुणी दुठुल्ल (कठोर) अपराध को अन-उपसम्पन्ना भिक्षुणी से कहे । जो भिक्षुणी जमीन खोदे । जो भिक्षुणी तृण-वृक्ष (भूतगाम) को गिराये। जो भिक्षुणी संघ के पूछने पर परेशान करे। जो भिक्षुणी निन्दा एवं बदनामी करे। जो भिक्षुणी मंच, पीठ, बिस्तर आदि को उचित स्थान पर न रखे । जो भिक्षुणी आश्रम में बिछौने आदि को उचित स्थान पर न रखे। जो भिक्षुणी दूसरी भिक्षुणी का ख्याल किये बिना ही विहार में अपना आसन लगाये। जो भिक्षुणी क्रोधित हो दूसरी भिक्षुणी को विहार से निकाले। जो भिक्षुणी विहार में पैर धबधबाते हुए चारपाई पर लेटे। जो भिक्षणी हरी वनस्पतियों आदि पर विहार बनवाये। जो भिक्षुणी प्राणी-युक्त जल से पौधे या मिट्टी को सींचे । जो भिक्षुणी स्तस्थ होते हुए भी एक स्थान पर एक से अधिक बार भोजन करे । अस्वस्थ होने पर, चीवर-दान के समय और यात्रा पर जाने के समय गण के साथ भोजन करने की अनुमति थो; जो भिक्षुणी इसका अतिक्रमण करे। जो भिक्षुणी आहार को भिक्षा-पात्र की मेखला से अधिक ग्रहण करे। जो भिक्षुणी विकाल में भोजन करे। ११४ ११५ ११७ ११८ २८ १२० २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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