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________________ संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १४५ छोटी गलतियों को क्षमा कर देने की सलाह दी थी, परन्तु दुर्भाग्यवश आनन्द उन गलतियों को पूछना भूल गये। अतः बुद्ध की मृत्यु के बाद प्रथम बौद्ध संगीति में इस जनापवाद के भय से कि लोग यह न कह सकें कि शास्ता बुद्ध के मरते ही संघ विच्छिन्न हो गया; धर्म एवं संघ की मर्यादा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए संघ-नियमों का कठोरता से पालन करने का वचन लिया गया।' दण्ड के भय से भिक्षु-भिक्षुणी बुरे कर्मों को करने से अपने को विरत रखेंगे---यही भावना इसके मूल में थी। दण्ड के प्रकार : बौद्ध संघ में दण्ड के दो प्रकार थे :-- (१) कठोर दण्ड, (२) नरम दण्ड । (१) कठोर दण्ड : इसमें पाराजिक एवं संघादिसेस नामक दण्ड आते थे। इसे दुठ्ठलापत्ति, गरुकापत्ति', अदेसनागामिनी आपत्ति, थुल्लवज्जा आपत्ति, अनवसेसापत्ति" आदि नामों से जाना जाता था। (२) नरम दण्ड : इस वर्गीकरण में प्रथम की अपेक्षा कुछ नरम दण्ड की व्यवस्था थी। पाराजिक एवं संघादिसेस को छोड़कर सभी दण्ड इसके अन्तर्गत् आते थे। इसे अदुठुल्लापत्ति, लहुकापत्ति, अथुल्लवज्जा आपत्ति, सावसेसापत्ति, देसनागामिनो आपत्ति आदि नामों से जाना जाता था। जिन अपराधों (दोषों) के कारण भिक्षु-भिक्षुणियों को दण्ड दिया जाता था, उन्हें आपत्ति के नाम से जाना जाता था। शिक्षापदों तथा विभंग के नियमों की अवहेलना या उनका अतिक्रमण ही आपत्ति मानी जाती थी। १. चुल्लवग्ग, पृ० ४०६. २. वही, पृ० १७०, १७८, १८६. ३. परिवार पालि, पृ० २११. ४. “थुल्लवज्जा ति थूल्लदोसे पञत्ता गरुकापत्ति" -वही, पृ०, २१२; समन्तपासादिका, भाग तृतीय, पृ० २४२०. ५. "एको पाराजिकापत्तिक्खन्धो अनवसेसापत्ति नाम" -वही, भाग तृतीय, पृ० १३६८. ६. "अथुल्लवज्जा ति लहुकापत्ति'-वही, भाग तृतीय, पृ० १४२०. ७. "सिक्खापदे च विभङ्ग च बुत्ता आपत्ति जानतब्बा" -वही, भाग तृतीय, पृ० १४१९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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