SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १४३ (१०) पराजिक-अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त से भी जिसकी शुद्धि सम्भव न हो ऐसे घोरतम पाप करने वाले को कम से कम एक वर्ष तक तथा अधिक से अधिक १२ वर्ष तक गृहस्थ वेश धारण कराकर श्रमण के सभी व्रतों का पालन कराने के पश्चात् जो नवीन दीक्षा दी जाती है, उसे पारांजिक प्रायश्चित्त कहते हैं । प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में यहाँ द्रष्टव्य है कि भिक्षुणियों के लिए परिहार तप का विधान नहीं किया गया है । व्यवहार सूत्र में भिक्षुणियों के अपराध करने पर छेद या परिहार की व्यवस्था की गयी है। इससे विदित होता है कि प्रारम्भ में भिक्षुणियों को परिहार का दण्ड भी दिया जा सकता था । परिहार प्रायश्चित्त के लिए अपराधी को गच्छ से दूर रहना पड़ता था । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मचर्य की सुरक्षा की दृष्टि से बाद में भिक्षुणियों को यह दण्ड देना निषिद्ध हो गया।' दिगम्बर भिक्षुणियों की दण्ड-प्रक्रिया के सम्बन्ध में अलग से उल्लेख प्राप्त नहीं होता। दिगम्बर भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के समान ही प्रायश्चित्त का विधान किया गया था। जैन दण्ड-व्यवस्था में एक ही अपराध करने पर पद की स्थिति के अनुसार प्रायश्चित्त की गुरुता कम-अधिक की जाती थी। भिक्षुणियों को नदी-तालाब आदि के किनारे ठहरने तथा वहाँ स्वाध्याय आदि करने का निषेध था। इसका अतिक्रमण करने पर स्थविरा को षड्लघु, भिक्षुणी को षड्गुरु, गणिनी तथा अभिषेका को छेद तथा प्रवर्तिनी को मूल प्रायश्चित्त का विधान था । स्पष्ट है, उच्चपद के अनुसार प्रायश्चित्त भी कठोर १. "निर्ग्रन्थीनां परिहार तपो न भवति''--बृहत्कल्पभाष्य, भाग षष्ठ, ५९१९ -टीका. २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तृतीय, पृ० १५८-१६२. ३. असम्पातिमे यथालन्दमदृष्टा क्ष ल्लिका तिष्ठति लघुपंचकम्, दृष्टा तिष्ठति गुरुपंचकम्, पौरुषीमदृष्टा तिष्ठति गुरुपंचकम्, दृष्टा तिष्ठति लघुदशकम्, अधिक पौरुषीमदृष्टा तिष्ठति लघुदशकम्, दृष्टायां गुरुदशकम् । सम्पातिमे यथालन्दमदृष्टा तिष्ठति गुरुपंचकम्, दृष्टा तिष्ठति लघुदशकम्, पौरुषीमदृष्टा तिष्ठति लघुदशकम्, दृष्टायां गुरुदशकम्, समधिकां पौरुषीमदृष्टायां तिष्ठन्त्यां गुरुदशकम्, दृष्टायां लघुपंचदशकम् । एवमूर्द्धवस्थानमाश्रित्योक्तम् । निषीदन्त्यास्तु गुरुपंचरात्रिन्दिवेभ्यः प्रारब्धं गुरुपंचदशरात्रिन्दिवेषु, त्वग्वर्तनं कुर्वत्या लघुदश रात्रिन्दिवादारब्धं लघुविंशतिरात्रिन्दिवेषु, एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy