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________________ १४० : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ यात्रा करने का विधान था । अन्यथा उसको पाचित्तिय का दण्ड लगता था । बौद्ध ग्रन्थों में उपाध्याय तथा शिष्य के मध्य मधुर सम्बन्धों का उल्लेख प्राप्त होता है । उपाध्याय वह है, जो अपने शिष्य के दोषों का ज्ञाता हो तथा उन दोषों का दमन करने में समर्थ हो ।' उपाध्याय अपने शिष्य के साथ पुत्रवत् व्यवहार करता था तथा शिष्य भी उपाध्याय के साथ पितातुल्य व्यवहार करता था । उपाध्याय अपने रोगी शिष्य की हर प्रकार से सेवा करता था - यहाँ तक कि वह शिष्य के शयन के लिए चादर आदि भी बिछाता था । वह अपने शिष्य के पात्र एवं चीवरों का पूरा ध्यान रखता था । शिष्य को दण्ड प्राप्त होने पर उपाध्याय प्रायश्चित्त के समय उसकी सहायता करता था । इसी प्रकार का पुत्रवत् कर्त्तव्य शिष्य का भी था । वह अपने उपाध्याय की सेवा में सदैव तत्पर रहता था । ३‍ शिष्य यदि उपाध्याय में रुचि नहीं रखता था, उसके प्रति श्रद्धा नहीं रखता था तथा लज्जाशील नहीं होता था, तो शिष्य को हटाने का भी विधान था । परन्तु सम्यक् आचरण करने वाले शिष्य को हटाना उचित नहीं माना जाता था । इसी प्रकार के मधुर सम्बन्ध उपाध्याया एवं शिक्षमाणा के मध्य भी रहे होंगे । अमरावती से प्राप्त एक बौद्ध अभिलेख (Amaravati Buddhist Stone Inscription ) में भिक्षुणी समुद्रिका को "उपाध्यायिनी" कहा गया है ।" इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी अभिलेख में किसी भिक्षुणी के लिए " उपाध्याया" या ' उपाध्यायिनी' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता । १. समन्तपासादिका, भाग तृतीय, पृ० १०२५. २. " उपज्झायो सद्धिविहारिकम्हि पुत्तचित्तं उपट्ठपेस्सति, सद्धिविहारिको उपज्झायम्हि पितुचित्तं उपट्टपेस्सति" - महावग्ग, पृ० ४३. ३. वही, पृ० ४८-५१. ४. वही, पृ० ६५ ६७. 5. List of Brahmi Inscriptions, 1286. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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