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________________ भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम : ११५ इस तरह हम देखते हैं कि सुप्रतिष्ठित महाव्रतों एवं नियमों को भंग करके भी जैन संघ भिक्षुणियों की रक्षा का प्रयत्न करता था । ऐसा करना मूलभूत नियमों का अतिक्रमण नहीं माना गया था इसके मूल में यह भावना निहित थी कि धर्म अथवा संघ के अभाव में वैयक्तिक साधना का क्या महत्त्व हो सकता है ? संघ का अस्तित्व सर्वोपरि है । अतः संघ की रक्षा एवं उसकी मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिए महाव्रतों की विराधना को भी कुछ अंशों तक उचित माना गया । उपयुक्त वर्णन से स्पष्ट है कि जैनधर्म के आचार्यों ने शील-सुरक्षा के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन किया था । यही कारण था कि साध्वियों के शील-सुरक्षार्थ उन्होंने जिन नियमों का सृजन किया था, उनमें उनकी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिकता के दर्शन होते हैं । दिगम्बर भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम दिगम्बर सम्प्रदाय में भी भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के सम्बन्ध में अत्यन्त सतर्कता बरती गई थी । भिक्षुणियों को कहीं भी अकेले आने-जाने की अनुमति नहीं थी । उन्हें ३, ५ या ७ की संख्या में ही एक साथ जाने का विधान था । इसके अतिरिक्त उनकी सुरक्षा के लिए साथ में एक स्थविरा भिक्षुणी भी रहती थी' । उन्हें उपयुक्त उपाश्रय में ही ठहरने का निर्देश दिया गया था । संदिग्ध चरित्र वाले स्वामी के उपाश्रय में रहना निषिद्ध था । उपाश्रय में भी उन्हें २, ३ या इससे अधिक की संख्या में ठहरने की सलाह दी गई थी । उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि उपाश्रय में रहते हुये वे परस्पर अपनी रक्षा में तल्लीन रहें । उपयुक्त उपाश्रय न मिलने पर उन्हें मर्यादापूर्वक रहने का निर्देश दिया गया था । * १. मूलाचार, ४ / १९४. २. "दो तिणि व अज्जाओ बहुगीओ वा सहत्यंति", वही, ४/१९१. ३. वही, ४ / १८८. ४. अगृहस्थ मिश्र निलयेऽसन्निपाते विशुद्धसंचारे द्व े तिस्रो वह्नयो वार्या अन्योन्यानुकूलाः परस्पराभिरक्षणाभियुक्ता गतरोषवैरमायाः सलज्जमर्यादक्रिया अध्ययनपरिवर्तनश्रवणकथनतपोविनयसंयमेषु अनुप्रेक्षासु च तथास्थिता उपयोगयोगयुक्ताश्चाविकारवस्त्रवेषा जल्लमलविलिप्तास्त्यक्तदेहा धर्मकुलकीर्तिदीक्षा प्रतिरूप विशुद्धचर्याः सन्त्यस्तिष्ठन्तीति समुदायार्थः । - वही, ४/१९१—टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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