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________________ ११४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ करण अत्यन्त आवश्यक था। सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक छान-बीन के उपरान्त भी ब्रह्मचर्य-स्खलन की घटनाएँ घटती रहती थीं। यह परिकल्पना की गयी कि यदि मनुष्य हमेशा कार्यों में लगा रहे, तो बहत कुछ अंशों में काम पर विजय पायी जा सकती है। जैनाचार्य काम-विजय कठिन अवश्य मानते थे, पर असम्भव नहीं । निशीथ चणि' में गाँव की कामातुर एक सुन्दर युवतो का दृष्टान्त देकर उपयुक्त मत को समझाने की सफल चेष्टा की गयी है । वह सुन्दर लड़की, जो पहले अपने रूप-रंग एवं साज-शृंगार में व्यस्त रहती थी-कार्य की अधिकता के कारण काम-भावना को ही भूल जाती है, क्योंकि घर के सामान के रख-रखाव की सारी जिम्मेदारी उसे सौंप दी गयी थी। यह कथा इसे ही सिद्ध करती है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है और कार्य में लगे रहने पर हम कामरूपी शैतान को बहुत कुछ अंशों में दूर कर सकते हैं। प्रतीकात्मक कथा के माध्यम से संघ के सदस्यों को यह सुझाव दिया गया था कि वे हमेशा ध्यान एवं अध्ययन में लीन रहें तथा मस्तिष्क को खाली न रखें। यही नहीं, भिक्षुणियों की ब्रह्मचर्य-रक्षा का उत्तरदायित्व भिक्षु-संघ पर भी था। उनको शील की रक्षा के निमित्त आचार के बाह्य नियमों का कितना भी उल्लंघन हो, सब उचित था । संघ का यह स्पष्ट आदेश था कि शील को रक्षा के लिए भिक्षु हिंसा का भी सहारा ले सकता है और वास्तव में कई बार भिक्षु को भिक्षुणियों की शील-रक्षार्थ हिंसा का आश्रय लेना पड़ा था । निशीथ चणि के अनुसार यदि कोई व्यक्ति साध्वी पर बलात्कार करना चाहता हो अथवा आचार्य या गच्छ के वध के लिए आया हो, तो उसकी हिंसा की जा सकती है। इस प्रकार की हिंसा करते हुए भी वह पाप का भागी नहीं माना गया था, अपितु विशुद्ध माना गया था। ठीक इसी प्रकार के अपवाद हमें मंत्रों एवं अलौकिक शक्तियों के प्रयोग के सम्बन्ध में भी देखने को मिलते हैं। कालकाचार्य ने अपनी भिक्षुणी-बहन को छुड़ाने के लिए गर्दभी विद्या एवं मन्त्र का प्रयोग किया था एवं विदेशी शकों की सहायता ली थी। इसी प्रकार शशक और भसक नामक दो जैन भिक्षुओं का उल्लेख मिलता है, जो अपनी रूपवती बहन भिक्षुणी सुकुमारिका की हर प्रकार से रक्षा करते थे। एक यदि भिक्षा को जाता था तो दूसरा सुकुमारिका की रक्षा करता था। १. निशीथ विशेष चूणि, ५७४. २. वही, २८९. ३. बृहत्कल्पभाष्य, भाग पंचम, ५२५४-५९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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