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________________ ...........मंगलं कुन्दकुन्दार्यो........" एवं ........."मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो...............", ये दोनों ही पाठ सही हैं। इसमें तो सन्देह नहीं कि कुन्दकुन्दाचार्य अपने समय के अभूतपूर्व प्रतिभाशाली, अपूर्व ज्ञानी, श्रुतमर्मज्ञ, प्रौढ़ रचनाकार आदि अनेक विशेषताओं से सम्पन्न एक युगान्तरकारी दिगम्बर प्राचार्य थे। भगवान् महावीर की दिगम्बर परम्परा को जीवित रखने में उनका बहुत बड़ा योगदान था। वे भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट दिगम्बर मुनि धर्म और प्राचार का स्वयं पालन करते थे और दूसरे साधुओं से भी ऐसी ही अपेक्षा रखते थे। आज जिनवाणी का जो कुछ और जितना भी आध्यात्मिक एवं आचार सम्बन्धी अंश प्राप्त है उसका अाधार उनके ग्रन्थ ही हैं। यदि वे रचना न करते तो दिगम्बर परम्परा में जिनवाणी का, भगवान् महावीर की द्वादशांग वाणी का जो थोड़ा-बहुत अंश प्राप्य है जिसके सहारे दिगम्बर परम्परा आज तक जीवित है, वह अंश भी प्राप्य नहीं होता और दिगम्बर परम्परा जीवित नहीं रहती। इस दृष्टि से वे दिगम्बर परम्परा के रक्षक थे, मार्गदर्शक थे, उनकी यह विशेषता, हमारे प्रति उनका यह उपकार ही उन्हें गौतम गणधर के पश्चात् स्मरणीय बनाता है। इनमें एक द्वादशांग श्रुत के परिष्कर्ता थे तो दूसरे उसके रक्षक । आत्मोत्थान में रत साधु अपनी ख्याति, लाभ, पूजा, प्रशंसा आदि की वांछा नहीं रखते । आज ऐसे सैकड़ों साधुओं का जीवनइतिहास काल के अज्ञात सागर में डूबा हुआ है जिन्होंने मानवजाति के अंधकारपूर्ण मानस को अपनी रचनाओं और उपदेशों द्वारा ज्ञान की ज्योति से प्रकाशित किया है। अपने सम्बन्ध में कुछ कहना अथवा लिखना उनकी प्रकृति के प्रतिकूल था । कुन्दकुन्दा६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002084
Book TitleAcharya Kundkunda Ek Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1988
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, E000, E005, N000, & N015
File Size1 MB
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