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________________ सर्वांगीण वर्णन कर इन्होंने अपनी अपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया है। आज दिगम्बर परम्परा में द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग सम्बन्धी जितना भी साहित्य उपलब्ध है उसका मूल-स्रोत प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथ ही हैं। भगवान् महावीर की परम्परा में होनेवाले सर्वसाधुओं में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वोपरि है, वे सर्वाधिक आदरणीय हैं, उनकी विद्वत्ता व प्रतिभा अतुलनीय है। अध्यात्मवेत्ताओं में उनका स्थान सबसे ऊपर है । वे ज्ञान, ध्यान व तप में लीन रहनेवाले साधु थे। उनका जीवन अध्यात्ममय था। साधु के प्राचरण में तनिक भी शिथिलाचार उन्हें सहन नहीं था। उनकी रचनाओं की तरह ही 'षट्खण्डागम' का भी सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीर की दिव्यवाणी से है अतः आचार्य कुन्दकुन्द का एवं षट्खण्डागम के कर्ता पुष्पदन्त-भूतबलि आदि आचार्यों का महत्त्व एक-दूसरे से कम-अधिक नहीं प्रांका जा सकता किन्तु आत्मा के उत्थान का सम्बन्ध द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग से अधिक है अतः हमारे हित की दृष्टि से प्राचार्य कुन्दकुन्द का महत्त्व सहज ही बढ़ जाता है। दिगम्बर परम्परा में वे गौतम गणधर के पश्चात् प्रतिष्ठापित हैं, वे प्रातःस्मरणीय, वन्दनीय एवं पूज्य समझे जाते हैं। प्रारम्भ में दिया गया श्लोक मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गरणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ इस बात का असंदिग्ध प्रमाण है। इस श्लोक के दो पाठ प्रचलित हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002084
Book TitleAcharya Kundkunda Ek Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1988
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, E000, E005, N000, & N015
File Size1 MB
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